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2024 के लोकसभा चुनाव में झारखंड में एनडीए को नुकसान हुआ है। 2019 के मुकाबले की 14 लोकसभा सीटों में से एनडीए को इस बार 2 और सीटों का नुकसान हुआ। पिछली बार एनडीए ने 12 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं, इस बार आंकड़ा सिमट कर 10 सीट का रह गया। झारखंड में ए
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आइए एक-एक सीट पर समझते हैं कि इस जीत का कारण क्या रहा। क्यों भाजपा अपनी मौजूदा सीटें तक हासिल नहीं कर सकी।
खूंटी
इस सीट से भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा चुनाव हार गए। केन्द्रीय जनजातीय कार्य और कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा के क्षेत्र से कई बड़ी योजनाओं की सौगात दी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 नवंबर को कमजोर जनजातीय समूहों के विकास के लिए 24,000 करोड़ रुपए की योजना की शुरुआत की। उन्होंने ‘विकसित भारत संकल्प यात्रा’ भी शुरू की और राज्य में 7,200 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन एवं शिलान्यास करने के अलावा पीएम-किसान योजना के तहत 18,000 करोड़ रुपए की 15वीं किस्त जारी की। प्रधानमंत्री बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू पहुंचे। खूंटी में 2019 के हार का अंतर 1445 मत रहा था।
खूंटी में नरेंद्र मोदी।
जनता से दूरी
पार्टी के तमाम प्रयास के बाद भी अर्जुन मुंडा खूंटी से लोकसभा का चुनाव हार गए। इस हार की सबसे बड़ी वजह रही जीत के बाद मतदाताओं से दूरी। पिछली बार कम अंतर से जीतने के बावजूद भी अर्जुन मुंडा ने अपने लोकसभा क्षेत्र का दौरा कम किया। इस बीच कांग्रेस के कालीचरण मुंडा जनता के बीच रहे और अपना जनाधार मजबूत करते रहे। वह खूंटी के ही रहने वाले हैं, ऐसे में आसपास के विधानसभा क्षेत्र और इलाके का दौरा करते रहे जिससे जनता ने जुड़ाव महसूस किया। खूंटी में प्रचार के लिए कांग्रेस ने उतना जोर नहीं लगाया। भाजपा के कई दिग्गज नेता खूंटी प्रचार के लिए पहुंचे, लेकिन कालीचरण जनता के बीच यह संदेश देने में सफल रहे कि जो लोकल होगा वही साथ देगा।
बाबूलाल मरांडी, कड़िया मुंडा, सुदेश महतो और बाबूलाल मरांडी।
पहचान का संकट
तमाम योजनाओं के बावजूद भी इस इलाके में जल, जंगल और जमीन का मुद्दा अहम रहा। इंडिया गठबंधन इस बात को जनता तक पहुंचाने में सफल रहा कि अगर भाजपा मजबूती के साथ सत्ता में आई तो ना सिर्फ जमीन बल्कि आरक्षण से भी हाथ धोना पड़ सकता है। खूंटी में पत्थलगड़ी का आंदोलन चरम पर रहा है। इस क्षेत्र में लोग अपनी जमीन और अपनी पहचान को लेकर मुखर रहे हैं, ऐसे में उनके मन में यह डर रहा कि अगर उन्होंने भाजपा को वोट दिया तो उनकी पहचान पर संकट आ सकता है।
सिंहभूम
पिछली बार कांग्रेस की सीट से चुनाव लड़ने वाली गीता कोड़ा ने चुनाव से ठीक पहले पाला बदला और भाजपा के साथ चली गई। इस सीट पर प्रचार के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 मई को पहुंचे थे। यहां झारखंड के पहले चरण में चुनाव था। गीता कोड़ा ने भी डोर टू डोर कैंपेन किया, लेकिन इस प्रचार और कैंपेन के बावजूद भी सिंहभूम की जनता दोबारा गीता कोड़ा पर भरोसा नहीं कर सकी।
पाला बदलना पड़ा भारी
गीता कोड़ा का कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने का फैसला जनता को पसंद नहीं आया। कई सभाओं में इसे लेकर गीता कोड़ा को विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने सवाल किया कि जब उन्होंने किसी और पार्टी में होते हुए वोट देकर जीत दिलाई तो वह चुनाव से पहले अपना पाला कैसे बदल सकती है।
काम पर भी सवाल
गीता कोड़ा ने अपने कार्यकाल में क्षेत्र के लिए क्या काम किया। इसे लेकर भी सवाल खड़े हुए, गीता कोड़ा केंद्रीय योजनाओं के सहारे जीत की उम्मीद कर रही थी। उज्जवला योजना, किसान समृद्ध योजना, जैसे कई काम गीता कोड़ा ने गिनाए, लेकिन जनता के बीच यह संदेश साफ था कि गीता कोड़ा ने क्षेत्र के लिए कोई खास काम नहीं किया।
आरक्षण खत्म होने का डर
इस सीट पर इंडी गठबंधन की तरफ से यह साफ संदेश दिया गया कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म करेगी। संविधान में ऐसे बदलाव लाएगी, जिससे आदिवासी और उनकी पहचान पर सकंट होगा। इंडी गठबंधन इस बात को जनता तक पहुंचाने में सफल रही जिसका लाभ उसे मिला।
जोबा VS गीता
इस सीट से अगर इंडी गठबंधन कोई और उम्मीदवार उतारती तो गीता कोड़ा को लाभ मिल सकता था, लेकिन गठबंधन के तहत जेएमएम के हिस्से में यह सीट गई। जेएमएम ने जोबा मांझी पर भरोसा जताया जो मनोहरपुर से विधायक रहीं है। वह इस क्षेत्र के मुद्दों को समझती हैं। जिसका लाभ इंडी गठबंधन को मिला।
लोहरदगा
लोहरदगा लोकसभा सीट से भाजपा ने अपना उम्मीदवार बदला। सुदर्शन भगत की जगह इस बार समीर उरांव को मौका मिला। इस सीट पर इंडिया गठबंधन ने सुखदेव भगत को मौका दिया। जेएमएम के चमरा लिंडा ने पार्टी से बगावत की और निर्दलीय चुनाव में खड़े हो गए।
ईसाई और मुस्लिम वोट की एकजुटता
लोहरदगा लोकसभा क्षेत्र में ईसाई और मुस्लिम वोट एक तरफ रहा। तमाम प्रयासों के बाद भी एनडीए इस वोटबैंक को अपनी तरफ करने में सफल नहीं रही। दूसरी तरफ आदिवासी और ईसाई वोटबैंक पर चमरा लिंडा की नजर थी। अगर चमरा लिंडा इस वोटबैंक पर कब्जा करने में सफल होते तो इसका लाभ भाजपा को मिल सकता थ, लेकिन चमरा लिंडा इस सीट पर बड़ा फैक्टर बनकर नहीं उभरे। बिशुनपुर, गुमला जैसे इलाकों में चमरा लिंडा का असर माना जा रहा था, लेकिन इन इलाकों से भी उन्हें खास वोट नहीं मिला।
शहरी इलाकों में भी वोट बैंक में बिखराव का असर कांग्रेस के सुखदेव भगत को मिला। सुखदेव भगत इस खास वोटबैंक तक यह बात पहुंचाने में सफल रहे कि उनके साथ भाजपा की सरकार अन्याय कर रही है। अपने चुनाव प्रचार में सुखदेव भगत ने संविधान में बदलाव औऱ जातीय भेदभाव का प्रमुखता से जिक्र किया, जिसका लाभ सुखदेव भगत को मिला। इस सीट पर भी सुखदेव भगत ने अपने सभी चुनावी मंच से सरना धर्म कोड, आरक्षण जैसे कई मुद्दों को उठाया जो जनता के बीच पहुंची।
राजमहल सीट
इस सीट से विजय हांसदा ने एक बार फिर यह सीट अपने नाम कर ली है। भाजपा के ताला मरांडी और निर्दलीय लोबिन हेंब्रम इस सीट पर विजय हांसदा को टक्कर नहीं दे सके। भाजपा 2004 से इस सीट पर जीत हासिल करने का प्रयास कर रही है। विजय हांसदा ने आरक्षित राजमहल लोकसभा क्षेत्र पूरे साहेबगंज और पाकुड़ जिलों को कवर करता है।
मुस्लिम वोट और जेएमएम के पारंपरिक वोट से आया परिणाम
यह क्षेत्र जेएमएम के मजबूत क्षेत्रों में है। इस सीट पर जेएमएम का पारंपरिक वोटर्स हैं जो सालों से तीर धनुष के निशान पर वोट करते रहे हैं। इस चुनाव के परिणाम में दूसरा असर रहा मुस्लिम वोटर्स का। भाजपा अक्सर सीएए और एनआरसी का जिक्र करती रही। इस क्षेत्र में मुस्लिम वोटर्स की संख्या भी काफी है।
भाजपा को इसका नुकसान हुआ। इस सीट पर मुस्लिम वोट का फैक्टर एक बड़े अंतर के रूप में उभर कर सामने आया। लोबिन हेंब्रम जेएमएम के पारंपरिक वोट नहीं काट सके। अगर लोबिन जेएमएम का वोट अपनी तरफ करने में सफल होते तो इसका लाभ भाजपा को मिल सकता था। इस क्षेत्र में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा भाजपा नो जोर-शोर से उठाया था।
दुमका
इस सीट पर भाजपा ने आधिकारिक घोषणा के बाद सुनील सोरेन का टिकट काटकर सीता सोरेन को दिया था। चुनाव से ठीक पहले जेएमएम छोड़कर सीता सोरेन भाजपा में शामिल हो गई थी। उन्होंने भाजपा में आने के बाद हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन पर कई गंभीर आरोप भी लगाए थे। दुमका से नलिन सोरेन ने जेएमएम के टिकट पर जीत हासिल की।
भाजपा को वोटर नहीं निकले बाहर
इस बार दुमका का मतदान प्रतिशत बढ़िया रहा, लेकिन भाजपा के वोटर्स नहीं निकले। पिछली बार की तरह इस बार भाजपा का बूथ मैनेजमेंट कमजोर रहा। सुनील सोरेन का नाम हटने के बाद भाजपा के कुछ कार्यकर्ताओं में निराशा भी वजह रही। दूसरी वजह रही है नलिन सोरेन की पहचान एक स्थानीय और मजबूत नेता के रूप में रही है। यहां से हेमंत सोरेन के जेल में होने का भी असर सहानुभूति वोट में बदला।
आदिवासी वोट बैंक एकजुट रहा
आदिवासी मतदाता एकजुट रहे उनमें टूट कम रहा। इस सीट पर कल्पना सोरेन ने भी प्रचार किया था। उनकी तरफ भी मतदाताओं की सहानुभूमित रही जिसका असर वोट बैंक पर हुआ। सीता सोरेन का व्यक्तिगत प्रभाव भी कम हुआ।
जीत की राह में शिकारीपाड़ा विधानसभा बना बड़ा फैक्टर
शिकारीपाड़ा से 45 हजार का लीड नलिन को मिला है। इसी सीट से यही बढ़त जीत की तरफ ले गई। भाजपा को दो विधानसभा नाला और सारठ से बढ़त मिलती रही है, पिछली बार की तुलना में इस बार बढ़त का आंकड़ा पहले जैसा नहीं रहा। जामताड़़ा में भी जेएमएम को 55 हजार से अधिक अच्छी लीड मिली।
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