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इंदौर के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में क्लेबसिएला न्यूमोनिया नामक बिमारी से जूझ रहे नवजात ने 21 दिन तक एनआईसीयू में एडमिट रहने के बाद जिंदगी की जंग जीत ली। इस दौरान उसे सभी से दूर रखा और सिर्फ मां को फीडिंग के लिए उसके पास जाने की इज्जत थी।
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उज्जैन के हॉस्पिटल में जन्म के तीसरे दिन ही नवजात जानलेवा बैक्टीरिया (क्लेबसिएला न्यूमोनिया) की चपेट में गया था। हालत गंभीर पर डॉक्टरों ने इंदौर के प्राइवेट हॉस्पिटल में रेफर कर दिया।
लेकिन तब तक यह बैक्टीरिया नवजात के ब्रेन तक पहुंच गया। यह वह स्टेज होती है जब बैक्टीरिया मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस वाला रहता है। यानी इस स्टेज में एंटीबायोटिक्स रिस्पॉन्ड नहीं करती। ऐसे में नवजात का स्पेशल ट्रिटमैंट चला। आखिरकार नवजात ने रिस्पॉन्ड करना शुरू किया और जिंदगी की जंग जीत ली।
पूरा मामला उज्जैन के अवंतीपुरा में रहने वाले दंपती विनय-हर्षा सोनी(33) का है। उनकी यह तीसरी संतान (मेल) है। दो बेटियां अधीरा (8) और इशाती (4) हैं। तीनों ही बच्चे सीजर से हुए हैं। विनय सोनी की ज्वेलरी की दुकान है। दो माह पहले हर्षा की डिलीवरी उज्जैन के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में हुई। जन्म के दौरान बच्चे का वजन औसत से कम (1900 ग्राम) था। फिर कुछ देर बाद ही उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। पूरे शरीर पर सूजन और शरीर अकड़ने लगा। इस पर उसे तीसरे दिन उसे एनआईसीयू में एडमिट करना पड़ा।
जांच में पता चला कि वह ‘क्लेबसिएला न्यूमोनिया वन ग्राम नेगेटिव’ नामक बैक्टीरिया की चपेट में है। इलाज के दौरान उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। इस पर आठवें दिन परिवार उसे इंदौर के एक प्राइवेट हॉस्पिटल लाया।
ऐसे किया स्पेशल ट्रीटमेंट
- जब वह आया था तो काफी सुस्त था। देखकर लगा था कि उसके ब्रेन में भी इन्फेक्शन है। इसे मेनिनजाइटिस कहते हैं। उस समय वह टेस्ट नहीं कर सकते थे, क्योंकि पीठ के पानी की जो जांच होती है उसमें प्लेट-लेट काउंट नॉर्मल होने चाहिए। ऐसे में हायर डोज में एंटीबायोटिक्स शुरू करनी पड़ी। जब प्लेट-लेट काउंट इम्प्रूव हुआ तो पीठ के पानी की जांच से पुष्टि की गई कि बच्चे के ब्रेन में इन्फेक्शन है।
- 21 दिनों तक उसे पैरीफेडिली सेंटर लाइन के जरिए एंटीबायोटिक्स दिए। दरअसल बच्चों में वीनस एक्सेस भी बहुत बड़ा चैलेंज होता है। कई बार आईवी केनुला बार-बार आउट हो जाते हैं। ऐसे में लॉन्ग लाइन के जरिए ही बी एंटीबायोटिक्स दी।
- ब्रेन में इन्फेक्शन के कारण एंटीबायोटिक्स के डोज लम्बे समय तक देना पड़े। इसमें में भी बदलाव करना पड़े ताकि एडिक्वेट अमाउंट में उसके ब्रेन में भी जा सके। इस कारण लम्बा इलाज चला और बच्चे ने क्लिनिकली रिस्पॉन्ड किया। फिर उसके प्लेट-लेट नॉर्मल रेंज में आए। सीआरपी भी एकदम कम हो गया।
- ब्रेन में पानी तो नहीं, इसकी जांच के लिए हर हफ्ते सोनोग्राफी की गई। वह भी नॉर्मल है।
क्या है इन्फेक्शन के कारण
कई बार डिलीवरी के दौरान मां के जरिए नवजात को इन्फेक्शन लगता है। अगर बच्चा एनआईसीयू या नर्सरी में है तो भी क्रॉस इन्फेक्शन होता है। कई बार इन्फेक्शन इतना सीवियर होता है कि बच्चे सेफ्टिक शॉक में भी जा सकते हैं। उनकी इम्यूनिटी कम होती है। इस बच्चे को हार्ट को सपोर्ट करने वाली दवाई भी देनी पड़ी। इससे जल्द ही सेफ्टिक शॉक को भी ट्रीट कर लिया गया।
अब फॉलोअप में आगे…
बच्चे को क्लोज न्यूरो डेवलपमेंटल फॉलोअप की जरूरत है। हर विजिट में उसकी एज के हिसाब से जो माइल स्टोन हैं वे कवर किए हैं या नहीं, यह देखना पड़ेगा। जैसे बच्चा डेढ़ माह में नजर मिलाने लगता है, मुस्कुराने लगता है। तीन माह बाद गर्दन संभालने लगता है। कई बार ब्रेन में इन्फेक्शन होने से बच्चे की सुनने की क्षमता प्रभावित होती है। सिर की ग्रोथ हो रही है कि नहीं यह भी देखना पड़ता है। इसके लिए मां को गाइड किया गया। उन्हें हर 15 दिनों बाद फॉलोअप के लिए आना होगा।
ईश्वर और हौंसलों पर बीते वे दिन
नवजात पिता कहते हैं कि इस दौरान हम हर पल ईश्वर से उसकी सलामती की दुआएं मांगते। साथ ही एक-दूसरे को हौसला देते कि वह ठीक होकर लौटेगा। मां उमा हमारी स्थिति देख हमें हिम्मत देती कि ईश्वर पर भरोसा रखो। अपना लाल ठीक होकर लौटेगा। बस इसी विश्वास पर हमारी उम्मीदें टिकी थी। मां हर्षा डॉक्टरों के बताए अनुसार बच्चे की केयर कर रही है। उसे सिर्फ माता-पिता और दादी ही संभालती हैं वह भी हाथों को सैनेटाइज करके। अभी छह महीने तक बच्चे को किसी और के हाथों में नहीं दिया जाएगा, क्योंकि इन्फेक्शन का खतरा है। परिवार ने उसका नाम रियांश सोचकर रखा है।
हर साल 5 लाख नवजात चपेट में
नवजात शिशुओं को यह बीमारी जन्म के बाद पहले 28 दिनों में हो सकती है। हर साल पांच लाख नवजात इसके शिकार हो जाते हैं। क्लेबसिएला, खास कर इसका मल्टीड्रग-रेसिस्टेंट स्ट्रेंस (एमडीआर-केपी) एक बड़ा खतरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने क्लेबसिएला को सबसे बड़ा खतरा बताया है। दुनिया भर के एनआईसीयू में इसके बढ़ने से नवजात शिशुओं की बीमार पड़ने और मृत्यु दर का जोखिम बढ़ा है।
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