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‘पिछले साल सोयाबीन की कीमत 4300 रु. प्रति क्विंटल मिली थी। मैंने सोचा इस बार दाम ज्यादा मिलेंगे इसलिए 10 एकड़ में सोयाबीन लगाई, लेकिन बाजार में सोयाबीन जिस भाव में बिक रही है उसे देखकर लगता है कि जमीन बेचने की नौबत आ जाएगी क्योंकि लागत भी नहीं निकल र
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ये कहना है रायसेन जिले के भोजपुर के रहने वाले किसान राकेश परमार का। राकेश भी उन किसानों के साथ आंदोलन में शामिल है, जो सोयाबीन का समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए पिछले एक हफ्ते से आंदोलन कर रहे हैं।दरअसल, इस समय मप्र में 20 से ज्यादा जिलों के किसान सोयाबीन का समर्थन मूल्य 6 हजार रु. किए जाने की मांग कर रहे हैं। इसके लिए किसान संयुक्त मोर्चा बनाया गया है। किसान तहसील और जिलों में जिम्मेदारों को ज्ञापन दे रहे हैं।
उनका ये भी कहना है कि 5 साल पहले जो दाम मिलता था वो ही मिल रहा जबकि लागत दोगुनी हो चुकी है। समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसानों का किस तरह से फायदा होगा? इस पर सरकार का क्या रुख है? सोयाबीन की फसल लगाने में कितनी लागत आती है और किसान को कितना मुनाफा होता है? दैनिक भास्कर ने किसान आंदोलन के बीच इस पूरे मामले को एक्सपर्ट और किसानों से समझा। पढ़िए रिपोर्ट
कैसे शुरू हुआ किसानों का आंदोलन
किसान नेता राकेश टिकैत केन्द्रीय कृषि मंत्री को लिखा पत्र
किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने 29 अगस्त को केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर सोयाबीन के दाम 6 हजार रुपए करने की मांग की थी। टिकैत ने पत्र में लिखा था कि सरकार ने सोयाबीन का समर्थन मूल्य 4850 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है।
मप्र की मंडियों में सोयाबीन 3500 रुपए प्रति क्विंटल से लेकर 4 हजार रुपए प्रति क्विंटल के बीच ही खरीदा जा रहा है, जबकि किसान को लागत 15 से 20 हजार रुपए प्रति एकड़ सोयाबीन पर आ रही है। कई साल से सोयाबीन के दाम नहीं बढ़ाए गए हैं।
इस पत्र के बाद मप्र में के किसानों ने सोयाबीन का समर्थन मूल्य बढ़ाने की मुहिम सोशल मीडिया पर शुरू की। किसान संयुक्त मोर्चा का गठन हुआ। इसके बाद तय हुआ कि सोयाबीन उत्पादक जिलों के किसान जिला और तहसील स्तर पर ज्ञापन देंगे।
केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को राकेश टिकैत ने 29 अगस्त को पत्र लिखा।
दिग्विजय ने वीडियो जारी किया, किसानों ने शिवराज को ज्ञापन दिया
जिस दिन राकेश टिकैत ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखा उसी दिन पूर्व सीएम और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी कर कहा कि किसानों को सोयाबीन के दाम नहीं मिल रहे हैं।
दिग्विजय ने तो यहां तक कह दिया कि जब तक सरकार समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाती तब तक किसानों को बीजेपी के सदस्यता अभियान का बॉयकाट कर देना चाहिए। वहीं दो सितंबर को गंजबसौदा पहुंचे केन्द्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी किसानों ने ज्ञापन देकर सोयाबीन का समर्थन मूल्य 6 हजार रु. प्रति क्विंटल करने की मांग की।
इस मामले को लेकर पूर्व सीएम कमलनाथ, पीसीसी अध्यक्ष जीतू पटवारी, नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंगार ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एमएसपी बढ़ाए जाने को लेकर पोस्ट किए।
पूर्व सीएम कमलनाथ ने भी 4 सितंबर को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर सोयाबीन की एमएसपी बढ़ाए जाने की मांग की।
भारतीय किसान संघ ने भी दिया समर्थन
किसानों के आंदोलन को भारतीय किसान संघ ने भी समर्थन दिया। संघ ने तय किया कि 5 सितंबर से 10 सितंबर के बीच सभी तहसील कार्यालय पर ज्ञापन दिया जाएगा। इसके बाद 16 से 18 सितंबर के बीच जिला मुख्यालयों पर सोयाबीन के दाम बढ़ाने को लेकर ज्ञापन दिए जाएंगे। सरकार ने बात नहीं मानी तो प्रदेश स्तर पर आंदोलन की रूपरेखा तैयार की जाएगी।
अब तीन पॉइंट्स में जानिए क्यों की जा रही समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग
1.मंडी में भाव समर्थन मूल्य से भी कम
दरअसल, सोयाबीन की फसल अगले महीने बाजार में आएगी। अभी मंडी में सोयबीन 3800 रु. से 4200 रु. प्रति क्विंटल के भाव से खरीदी जा रही है। जबकि सरकार ने सोयाबीन का समर्थन मूल्य 4892 रु. प्रति क्विंटल रु. तय किया है। यानी एमएसपी से भी कम दाम पर मंडी में सोयाबीन खरीदी जा रही है।
इस बार सोयाबीन का बंपर उत्पादन हुआ है ऐसे में किसानों की चिंता इस बात की है कि जब बाजार में फसल बिकने के लिए आएगी तो ये दाम और कम होंगे।
2. लागत और मुनाफे के बीच मामूली अंतर
मंडी में अभी सोयाबीन जिस रेट पर खरीदी जा रही है यदि यही रेट रहा तो किसानों की लागत और मुनाफे में बेहद मामूली अंतर ही रहेगा। कुछ किसानों को तो लागत का पैसा भी नहीं मिल पाएगा। इसे लेकर भास्कर ने किसानों से बात की तो उन्होंने बताया कि पिछले एक दशक में कीटनाशक और बीज से लेकर हर वस्तु के दाम बढ़ चुके हैं। फसल की लागत हर साल बढ़ती जा रही है, लेकिन उतने दाम नहीं मिलते।
सीहोर के बिलकीसगंज के रहने वाले नरेश मेवाड़ा इसका हिसाब किताब बताते हुए कहते हैं कि मैंने इस बार 20 एकड़ में सोयाबीन की फसल लगाई है। एक एकड़ में 4 से 5 क्विंटल पैदावार की उम्मीद है। मगर इस बार मौसम की वजह से सोयाबीन पीली पड़ रही है। ऐसे में कीटनाशकों का छिड़काव ज्यादा करना पड़ा।
नरेश ने बताया कि एक एकड़ में कीटनाशक पर ही करीब 6 से 7 हजार रु. खर्च होता है। दस एकड़ के हिसाब से अब तक मैं केवल कीटनाशक पर करीब 70 हजार रु. खर्च कर चुका हूं। साथ ही फसल बोने से लेकर कटाई तक का खर्च देखे तो एक एकड़ में करीब 18-19 हजार रु. खर्च आता है।
3.मंडी में फसल बेचना किसानों की मजबूरी
भोजपुर के किसान लक्ष्मीनारायण परमार कहते हैं कि किसान को मंडी में फसल बेचना मजबूरी है क्योंकि सरकार सोयाबीन को समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदती। जो बड़े किसान है वो फसल का स्टॉक करते हैं लेकिन छोटे किसानों के लिए ये संभव नहीं है।
इस बार तो किसान चाह कर भी फसल का स्टॉक नहीं कर पाएगा। क्योंकि मौसम की वजह से फसल पीली पड़ रही है। किसान चाहेगा कि उसकी फसल बिक जाए क्योंकि उसे कई लोगों को पैसे का भुगतान करना पड़ता है। भले ही फसल 2000 के हिसाब से ही बिके लेकिन उसे बेचना पड़ेगी।
महेंद्र मेवाड़ा कहते हैं कि हम मंडी में एक ही खेत में पैदा हुई फसल को दो अलग अलग ट्रैक्टर से ले जाते हैं तो व्यापारी दोनों की अलग-अलग कीमत लगाता है। राकेश परमार इस बात से चिंतित है कि फसल के यही दाम रहे तो जमीन बेचने की नौबत आएगी क्योंकि सोयाबीन के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
एक्सपर्ट से समझिए एमएसपी बढ़ाने से क्या फायदा होगा
किसान नेता केदार सिरोही कहते हैं कि हमने 90 हजार सोयाबीन किसानों को लेकर सर्वे किया है। इसमें एक बात निकल कर आई कि हर किसान का प्रति क्विंटल उत्पादन पर 4 हजार रु. का खर्च है। जो अभी बाजार रेट है वह लागत के बराबर ही है। ऐसे में किसानों को सोयाबीन से कोई फायदा नहीं है। यदि सरकार एमएसपी 6 हजार रु. करती है तो मार्केट में कॉम्पिटिशन बढ़ेगा। मंडी व्यापारियों को भी दाम बढ़ाने पड़ेंगे।
वहीं भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान इंदौर के साइंटिस्ट बीयू दुपारे कहते हैं कि सोयाबीन एक इंटरनेशनल क्राप है। इसमें हमारी हिस्सेदारी मात्र 3 पर्सेंट है। अमेरिका, अर्जेंटीना में प्रोडक्शन हमसे 6 गुना ज्यादा है। सोयाबीन का यूरोपियन और गल्फ कंट्री में बहुत ज्यादा एक्सपोर्ट होता है।
देश में पैदा हुई सोयाबीन की 90% डिओसी (डि ऑयल केक) जो इसका बाय प्रोडक्ट है वो एक्सपोर्ट होती थी और 10 फीसदी सोयाबीन बीज के लिए रखी जाती है। सोयाबीन के दाम इंटरनेशल मार्केट पर डिपेंड करते हैं, इसका डोमेस्टिक कंजंप्शन बेहद कम है। पिछले सालों में इसका यूज बढ़ा है, मगर इतना नहीं कि किसान मार्केट प्राइस को कंट्रोल कर सके।
एक्सपर्ट बोले- पाम ऑयल पर इम्पोर्ट ड्यूटी से कम हुए सोयाबीन के दाम
किसान नेता केदार सिरोही कहते हैं कि देश में सोयाबीन आइल का प्रोडक्शन 17-18 पर्सेंट है। अब सोयाबीन आइल की बजाय पाम ऑयल का ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है। पहले पाम ऑयल पर इम्पोर्ट ड्यूटी 35 फीसदी थी जो अब 5 फीसदी है।
सरकार को पाम ऑयल पर लगने वाली इम्पोर्ट ड्यूटी को बढ़ाना चाहिए। सरकार जिस तरह से इम्पोर्ट ड्यूटी घटा रही है उससे ऐसा लगता है कि वह अमेरिका, अर्जेंटीना, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्राजील के किसानों को प्रमोट कर रही है और देश के किसान को नजर अंदाज कर रही है। किसानों को सोयाबीन के सही दाम नहीं मिल पा रहे है इसके पीछे ये भी एक बड़ी वजह है।
कृषि मंत्री बोले- किसानों की मांग जायज है तो केंद्रीय मंत्री को बताएंगे
सोयाबीन के समर्थन मूल्य को बढ़ाने को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं वहीं मप्र के कृषि मंत्री ऐंदल सिंह कंसाना का कहना है कि एमपी में इस तरह की कोई मुहिम नहीं छिड़ी है। मप्र सोयाबीन उत्पादन के मामले में देश में नंबर वन है। इससे कांग्रेस बौखलाई हुई है।
कांग्रेस ही किसानों को भड़का रही है अगर किसानों को कोई दिक्कत होगी और उनकी मांग जायज होगी तो सरकार उनकी बात सुनेगी। जो लोग ये आरोप लगा रहे हैं कि मंत्री जी मिलने का समय नहीं दे रहे हैं तो वे लोग कांग्रेस की मानसिकता वाले लोग हैं।
इस मामले को लेकर मेरे पास किसी भी किसान नेता का कॉल नहीं आया। कंसाना बोले कि अगर किसान को सुई भी चुभती है तो दर्द सरकार को होता है। मप्र आज सोया स्टेट बना है तो वह किसानों की बदौलत ही बना है।
अब जानिए मप्र कैसे बना सोया स्टेट
भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान इंदौर के साइंटिस्ट बीयू दुपारे बताते हैं कि सत्तर के दशक में मप्र में सोयाबीन की खेती की शुरुआत हुई। तब 30 हजार हेक्टेयर एरिया में सोयाबीन की खेती होती थी।कुछ समय बाद जबलपुर में सोयाबीन की किस्मों पर रिसर्च शुरू हुई।
वे बताते हैं कि एमपी में किसान और बाजार को जोड़ने में तिलहन संघ ने सबसे ज्यादा अहम भूमिका निभाई। सोयाबीन को लेकर किसानों का रुझान देखते हुए इंदौर के आसपास इंडस्ट्री शुरू होने लगी, मगर प्रोडक्शन इंडस्ट्री की डिमांड से बेहद कम हो रहा था।
ऐसे में इंडस्ट्रीज ने भी सोयाबीन का प्रचार करना शुरू कर दिया था। इसका नतीजा ये रहा कि 90 के दशक में 100 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती होने लगी। एमपी ने देश के सामने सबसे पहले सक्सेस मॉडल पेश किया इसके बाद दूसरे राज्यों ने इसे फॉलो किया।
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