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बॉर्डर पर यूं तो सबसे बड़ा खतरा दुश्मन से जंग का रहता है, लेकिन देश के सबसे गर्म इलाकों में शुमार बाड़मेर से सटे सैकड़ों गांवों की असली जंग पानी के लिए है। यहां पड़ोसी को मांगने पर लोग घी देने को तैयार हैं, लेकिन पानी की एक बूंद नहीं। पानी यहां राशन की तरह लीटर के हिसाब से मिलता है। भास्कर रिपोर्टर भारत-पाकिस्तान बॉर्डर के उन गांवों तक पहुंचे, जहां पड़ोसी कभी पानी की मटका उधार मांगता तो उसका हिसाब बही खातों में लिखा जाता था। यहां लोग 250 साल पुराने सबसे अनोखे और छोटे कुओं (राजस्थान में बेरी कहते हैं) के पानी से अपनी प्यास बुझा रहे हैं। सूरज उगने पर इन कुओं का पानी पाताल में चला जाता है। पानी चोरी का खौफ ऐसा है कि घर के लोग रातभर जागकर पहरेदारी करते थे। अब बड़े-बड़े ताले लगाकर रखते हैं। गांव के किसी घर में बेटी पैदा होती है, तो बड़ी होते ही उसे इन कुओं से पानी निकालने की खास ट्रेनिंग दी जाती है। भारत-पाक बॉर्डर से सटे उन गांवों से पढ़िए ये ग्राउंड रिपोर्ट- जहां एक-एक बूंद कीमती है… बाड़मेर से मुनाबाव की तरफ जाते हैं तो रामसर, देरासर, पादरिया, रोहिड़ी, गारडिया, सेलु, हिंदिया, सज्जन का पर, अभे का पर जैसे सैकड़ों छोटे-छोटे गांव आते हैं। बंटवारे के समय पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए लोगों ने यहां डेरा जमाया था। इन गांवों से बॉर्डर महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। हम सबसे पहले रामसर गांव में दाखिल हुए जहां शेरमल से हमारी बात हुई। उनके हाथ और पैर की अंगुलियां कटी हुई थीं। पूछने पर उन्होंने पूरी दास्तां सुनाई… चलती ट्रेन से पानी भरते थे, किसी का हाथ कटा कोई मर गया 60 वर्षीय शेरमल जैन ने बताया कि 1970 के दशक में पानी की सप्लाई ट्रेन से होती थी। ट्रेन महज पांच मिनट के लिए रुकती थी। आस-पास के गांवों के 100 से ज्यादा लोग मटकियां लेकर ट्रेन का इंतजार करते थे। मैं उस समय 18 वर्ष का था। एक बार चेचेरे भाई और पिताजी के साथ ट्रेन से पानी भरने गया था। ट्रेन की स्पीड धीमी होते ही मैं बोगी के ऊपर चढ़ा और मटकों में पानी भरकर नीचे खड़े पिताजी को पकड़ा रहा था। कई दूसरे युवक भी ट्रेन पर चढ़े हुए थे। वहां खड़े रहने की जगह नहीं थी। अचानक ट्रेन चल पड़ी और मेरा बैलेंस बिगड़ गया। पटरियों पर गिरते ही ट्रेन का पहिया मेरे हाथ और पैर के ऊपर से निकल गया। मेरा पूरा शरीर फिर से ट्रेन के पहियों में फंसता, उससे पहले ही पिताजी और भाई ने खींचकर मुझे बाहर निकाला। जान तो बच गई, लेकिन डॉक्टर को मेरे एक हाथ और पैर की अंगुलियां काटनी पड़ीं। पानी के लिए मैंने कई लोगों की मौत होते भी देखी है। शेरमल ने बताया कि आप गांव के भीतर जाकर देखिए पानी की एक बूंद की कीमत आपको मालूम हो जाएगी। 250 साल पुराने मीठे पानी के छोटे कुएं हम रामसर गांव में आगे बढ़े तो सरपंच गिरीश खत्री हमें पानी के छोटे-छोटे कुएं दिखाए। उन्होंने बताया कि ये 250 साल पुरानी बेरियां (कुएं) हैं। ये एक छोटे कुएं जैसी होती है, जिन्हें बोलचाल की भाषा में हम बेरी कहते हैं। ये बेरियां किसी वैज्ञानिक खोज से कम नहीं है। शताब्दियों पहले पूर्वजों ने मीठे पाने के लिए इनकी खोज की थी। ये वाटर हार्वेस्टिंग यानी बारिश के पानी को सहेजने का अनोखा तरीका है। हमारे गांव में ऐसी 100 से ज्यादा बेरियां बनी हुई हैं। आगे जाएंगे तो लगभग हर गांव में ऐसी ही बेरियां मिलेंगी। ये बेरियां अंदर जमीन में नालियों के जरिए आपस में जुड़ी हुई हैं। करीब 60 से 70 फीट गहरी बेरियों में बारिश का पानी जमा हो जाता है। इनसे जो पानी निकलता है उसी से आस-पास के 30 से 40 गांव-ढाणी के लोगों की प्यास बुझती है। खास बात यह है कि जहां बेरियां बनी है, सिर्फ वहां ही जमीन के अंदर मीठा पानी मिलता है। बेरियों से महज 10 फीट दूर जाने पर भी खुदाई में खारा पानी निकलता है। पानी की चौकीदारी करते थे, अब ताला लगाकर रखते हैं बेरियां वैसे तो सरकारी जमीन पर बनी हैं, लेकिन गांव में रहने वाले हर परिवार ने अपनी-अपनी बेरी पर हक जता रखा है। जो लोग सक्षम होते हैं उन परिवारों की अपनी निजी एक बेरी है। इन बेरी पर वे अपने दादा-परदादा या पूर्वजों के नाम लिखवाते हैं। ग्रामीण देवाराम ने बताया कि पहले लोग बेरियों की चौकीदारी करते थे ताकि रात में कोई पानी चुरा ना ले जाए। गलती से चौकीदारी करने वाले की नींद लग जाती थी तो उसे खाट समेत वहां से हटाकर लोग बेरी से पानी चुरा ले जाते थे। अब लोग ताले लगाकर पानी की रखवाली करते हैं। उधार पानी का हिसाब बही-खातों में लिखते थे देवाराम ने बताया कि गांव में अगर किसी के घर पर मेहमान आते थे तो पानी खत्म होने पर पड़ोसी से उधार लेकर जाते थे। जितने घड़े पानी उधार लिया जाता था उसे वापस लौटाना पड़ता था। पानी के लेनदेन का हिसाब बाकायदा बही-खातों में भी लिखा जाता था। किसी परिवार ने 5 मटके पानी उधार लिया है तो उसे बही खाते में कलमबद्ध करते थे। किसी परिवार की बेरी से पानी खत्म हो जाता था तो वो दूसरे परिवार से उधार मांगकर काम चलाता था। लेकिन पानी को उसे हर कीमत पर लौटाना ही पड़ता था। सूरज ऊपर आते ही पानी नीचे उतर जाता गांव के देवाराम ने बताया कि महिलाएं सुबह चार बजे उठकर बेरियों से पानी भरना शुरू कर देती हैं। क्योंकि सूरज उगने के बाद गर्मी पड़ते ही इन बेरियों का पानी गायब होकर गहराई में चला जाता है। शाम होने के बाद जब वापस थोड़ी ठंडक होती है तो पानी फिर से ऊपर आने लगता है। ऐसे में सुबह के बाद शाम के समय फिर से महिलाएं पानी भरने आती हैं। गांव में पानी बचाने के अनोखे तरीके 1. मिट्टी से करते हैं बर्तन साफ पानी की सबसे ज्यादा कमी है। यहां पीने का पानी मुश्किल से मिलता है। ऐसे में गांव के लोग बर्तन बालू मिट्टी से साफ करते हैं। मिट्टी से बर्तन साफ करने के बाद उन्हें वापस काम में लेते हैं। 2. जिस पानी से नहाए, उसी से कपड़े साफ बच्चों को खाट पर बिठाकर नीचे टब रखते हैं। नहलाने के बाद पानी को टब में इकट्ठा कर लेते हैं। फिर उसी पानी से कपड़े धोते हैं। 3. कपड़े धोने के पानी को साफ कर पिलाते हैं पशुओं को कपड़े धोने के बाद पानी को फेंकते नहीं है। उस पानी में फिटकरी डालकर साफ करते हैं। साफ पानी के साथ आधा मीठा पानी और आधा खारा पानी मिक्स करके पशुओं को पिलाते हैं। महिलाओं के पानी लाते समय गर्भपात, बच्चियों की हाइट रह जाती है छोटी 65 वर्षीय संजू देवी ने बताया कि पीने, नहाने, पशुओं के लिए पानी लाने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है। पूरे परिवार के लिए बेरियों से पानी लाने में कई चक्कर लग जाते हैं। जिस परिवार में गर्भवती महिलाएं होती हैं, उन्हें भी 7वें महीने तक पानी लाना पड़ता है। उन्होंने बताया करीब 10 साल पहले सीता नाम की एक गर्भवती के पानी लाते समय गिरने से गर्भपात हो गया था। एक महिला दिनभर में 15 से 20 मटके पानी लाती है। इसे उनके सिर, घुटने, कमर में दर्द की बीमारी होने लगती है। छोटी लड़कियों की सिर पर वजन उठाने से हाइट कम रह जाती है। बेटी पैदा होते ही सबसे पहले सिखाते हैं पानी निकालने की कला खेतू देवी नाम की एक महिला ने बताया कि बेरियों से पानी भरना काफी जोखिम भरा काम है। मटकियों को रस्सी से बांधकर कच्ची बेरी के अंदर बड़ी सावधानी से खड़े होकर पानी निकालना पड़ता है। जरा सा पैर फिसला तो बाहर निकलना मुश्किल है। पहले ऐसे कई हादसे हुए थे, जिनमें महिलाओं की बेरी में गिरने से मौत हो गई। शादी के बाद बेटी को अपने ससुराल में भी इन्हीं बेरियों से पानी भरना होता है। इसलिए पढ़ाई और घर के काम से पहले बेटी को पानी भरना सिखाते हैं। महिलाएं पानी भरने आती हैं तो अपनी बेटियों को साथ लेकर आती हैं ताकि वो हमें देखकर निकालना सीख जाएं। ग्रामीण बोले- यहां घी से भी महंगा पानी रामसर निवासी 45 वर्षीय धन्ना देवी कहती हैं- पड़ोसी घी मांगता है तो उसे घी दे देंगे लेकिन पानी मांग लिया तो देने में संकोच करते हैं। पानी का बड़ा टैंकर 5 हजार और छोटा टैंकर 1 हजार में आता है। हर महीने 10 हजार से ज्यादा रुपए पानी पर खर्च हो जाते हैं। हम मजदूरी करके जितना कमाते हैं, उसकी आधी कमाई पानी लाने में खर्च हो जाती है। बेरी से सिर्फ पीने का पानी मिल पाता है लेकिन नहाने-धोने, पशुओं के लिए पानी खरीदकर लाना पड़ता है। सरकार राशन में प्रति व्यक्ति 55 लीटर पानी देती है रामसर गांव सरपंच गिरिश खत्री ने बताया कि बेरियों से जो पानी निकलता है, उससे काम नहीं चल पाता। सरकार पानी के टैंकरों से महीने में एक बार पानी सप्लाई करती है। यहां प्रति व्यक्ति 55 लीटर पानी देती है, लेकिन इतना पानी एक परिवार के लिए काफी नहीं होता है। नर्मदा नहर के पानी से जरूर कई गांवों को राहत मिली है। जल जीवन मिशन के तहत पाइप लाइन से 15 दिन में एक बार आने लगा है। इसमें भी पानी कुछ जगहों तक ही प्रेशर से आता बाकी जगहों तक पहुंच ही नहीं पाता है। डीएनपी के कई गांवों में आज भी बिजली, पानी, नेटवर्क नहीं डीएनपी (डेसर्ट नेशनल पार्क) के कई गांवों में आज भी पानी, बिजली और मोबाइल नेटवर्क नहीं पहुंच पाया है। यह अधिकतर गांव बॉर्डर के पास हैं। डीएनपी के तीहरी गांव में बिजली, पानी, नेटवर्क आज तक नहीं पहुंचा है। यहां एक रेत का बड़ा टीला है। इस टीले को पार करके लोगों को पानी बेरी से लाना पड़ता है। इतने बड़े टीले को पार करना ही मुश्किल होता है लेकिन आस-पास के गांव के लोग इसे पार करके पानी लाते हैं।
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