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जयपुर का महालक्ष्मी मंदिर, जहां 1100 साल पुरानी मां लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा कमल के फूल पर विराजित है। इसी जगह राजपरिवार के राजकोष के लिए चांदी के सिक्के बनाए जाते थे। ये सिक्के एक गुप्त सुरंग के जरिए सिटी पैलेस तक पहुंचते थे। मंदिर
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मन्दिर में प्रत्येक शुक्रवार शाम को महा आरती का आयोजन महन्त राजेंद्र कुमार विक्रम कुमार विकास कुमार की ओर से किया जाता है जिसमे बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। जो जयपुर की चार दीवारी के ईशान कोण में बना है। यहां के सभी व्यापारियों ने अपनी दुकानों का नाम भी महालक्ष्मी जी के नाम पर रखा हुआ है।
महंत राजेंद्र कुमार शर्मा ने बताया- यहां पाताल लोक में महालक्ष्मी कमल से निकलती हुई दिखाई गई है। जो पृथ्वी पर गजलक्ष्मी के रूप में विराजमान है। गज लक्ष्मी के दोनों और दो हाथी और दो उल्लू हैं। विग्रह के पीछे शेषनाग पर भगवान विष्णु विराजित हैं।
विग्रह के ऊपर स्वर्ग लोक है। इसमें राजा इंद्र अपनी इंद्राणी के साथ और दो एरावत हाथी के साथ स्वर्ग से मां लक्ष्मी पर पुष्प वर्षा करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
मंदिर महेंद्र पंडित राजेंद्र कुमार शर्मा ने बताया- यह विग्रह 11वीं शताब्दी का है। इसे जयपुर के राज परिवार द्वारा स्थापित किया गया था। 11वीं शताब्दी में आमेर टकसाल के अंदर तांबे के सिक्के बनाए जाते थे। पहले आमेर राजधानी हुआ करती थी। यह मूर्ति भी पहले आमेर की टकसाल में स्थापित थी। जयपुर की स्थापना से करीब 100 साल पहले चांदी की टकसाल बनाई गई। सन् 1727 में जयपुर की स्थापना के बाद चांदी की टकसाल में मूर्ति को स्थापित किया गया।
महालक्ष्मी को रूप चौदस पर चांदी से सजाया जाता है।
रूप चौदस पर माता का श्रृंगार किया जाता है
विग्रह को विराजित करने में कई सावधानियां भी रखी गईं। माता की मूर्ति को इस तरीके से स्थापित किया गया है कि कमल पर महालक्ष्मी विराजित रहे। कमल को दीवार के अंदर फिक्स किया गया है। इससे मूर्ति को कोई हिला ना सके। रूप चौदस के अवसर पर माता का चांदी के आभूषणों से श्रृंगार किया जाता है। ये चांदी के आभूषण राज परिवार के समय के चढ़ाए हुए हैं। इसे हर साल केवल रूप चौदस के दिन ही निकाला जाता है।
मंदिर महंत के अनुसार जयपुर के महाराज मानसिंह प्रथम हर दिन महालक्ष्मी की साधना के लिए आया करते थे। ऐसा बताया जाता है कि महाराजा मानसिंह मां लक्ष्मी से अपने राजकोश को सदैव भरे रहने की याचना किया करते थे। महालक्ष्मी की कृपा से राजकोश से जितना खजाना खर्च होता थाष उसके दूसरे दिन ही वह खजाना फिर से भर जाता था।
दीपावली के अवसर पर जयपुर के सभी प्रमुख जौहरी गहनों की पोटली बांधकर यहां आया करते थे। हर पोटली पर व्यापारी का नाम लिखा रहता था। इसे माता के चरणों में रखा जाता था। दीपावली के तीसरे दिन यहां से वह अपने दुकान और घरों तक लेकर जाया करते थे।
चांदी की टकसाल स्थित महालक्ष्मी का मंदिर।
विदेश से आया करती थी चांदी
जब से चांदी के सिक्के का प्रचलन हुआ। उसके बाद से यहां पर चांदी के सिक्के बना करते थे। इस जगह पर पहरा देने के लिए राज परिवार से काफी संख्या में सैनिक लगा करते थे। जो इस चांदी की टकसाल की सुरक्षा प्रदान किया करते थे। इसे पुराने जमाने का रिजर्व बैंक कहा जाता था।
यहां पहले चांदी विदेश से आया करती थी। इसे लाने में काफी सुरक्षा रखी जाती थी। इसके बाद यहां पर चांदी के सिक्के बनाए जाते थे। इसे सबसे पहले महालक्ष्मी के पास लाया जाता था। इसके बाद यहां से राज परिवार के राजकोष में जमा होने के लिए जाता था।
वास्तु के हिसाब से स्थापित किया गया
चांदी की टकसाल को भी वास्तु के हिसाब से ही स्थापित किया गया था। वास्तु शास्त्र के अनुसार भंडार या लक्ष्मी का स्थान ईशान कोण में होता है। इसलिए जयपुर परकोटे के ईशान कोण में इस मंदिर की स्थापना हुई थी।
कमल के फूल की आकृति पर विराजित हैं मां लक्ष्मी।
चांदी के सिक्के ले जाने के लिए गुप्त सुरंग बनाई थी
इस मंदिर को ऊंचाई पर स्थापित किया गया है। इसके नीचे से टकसाल से सिटी पैलेस तक एक गुप्त सुरंग हुआ करती थी। इसके जरिए राजकोश तक चांदी के सिक्के पहुंचते थे। सभी सिक्के मां के नीचे से निकलकर ही राजकोश तक पहुंचे थे। वहीं, राज परिवार के सदस्य आधी रात में मंदिर में पूजा करने आते हैं। यह परंपरा सैकड़ो सालों से चलती आ रही है। वर्तमान में पूर्व राज्य परिवार के सदस्य भी दीपावली की अर्धरात्रि को यहां महालक्ष्मी के पूजन और दर्शन के लिए आते हैं।
3 साल पहले तक सिर्फ दीपावली के दिन खोला जाता था मंदिर
3 साल पहले तक यहां आम आदमी के लिए दर्शन केवल दीपावली के दिन खोले जाते थे। 2022 के बाद से इसके दर्शन आम आदमी के लिए प्रतिदिन खोला गया। चांदी की टकसाल 12000 गज में फैली हुई थी। इसमें ही कर्मचारियों के रहने की भी व्यवस्था थी। कर्मचारियों को बाहर जाने की अनुमति नहीं हुआ करती थी। यहां चांदी को गला कर उसके बाद सिक्के बनाए जाते थे।
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