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किसान महापंचायत की ओर से कृषि राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी को किसानों के प्रतिनिधिमंडल ने ज्ञापन सौंपा।
किसान महापंचायत की ओर से कृषि राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी को उनके निवास स्थान पर सैकड़ों किसानों के प्रतिनिधिमंडल ने ज्ञापन सौंपा। इसमें अजमेर जिला अध्यक्ष प्रहलाद जाट, किशनगढ़ तहसील अध्यक्ष रघुनाथ चौधरी, पूर्व प्रधान राय भगवत सिंह के अतिरिक्त नंदराम र
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किसानो की ओर से कृषि राज्य मंत्री को दिए ज्ञापन में निम्न मांगे रखी गई।
1. यह कि भारत सरकार की वर्तमान में चल रही योजनाओं एवं कार्यक्रमों की संख्या, दिशा एवं क्रियान्वयन की समीक्षा की जाये तथा राज्यों के स्तर पर योजना एवं कार्यक्रमों की रचना की जाकर उनकी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती भारत सरकार के द्वारा की जाये। राज्यों को योजना एवं कार्यक्रमों की रचनाओं में भारत सरकार की ओर से विदेशी को स्वेदेशानुकुल एवं स्वदेशी को समयानुकूल की दिशा में उच्च तकनीकी, नवीनतम ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर मार्गदर्शन के साथ सहायता प्रदान की जाये। राज्यों के स्तर पर बनाई गयी योजना एवं कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियान्वयन एवं संचालन के लिए निरंतर नियंत्रण पूर्ण परामर्श दाता की भूमिका निभाई जाये।
2. यह कि कृषि एवं किसान कल्याण का विषय संविधान के अनुसार राज्यों के पास है किंतु केंद्र इस विषय में उनकी प्रतिपूर्ति के नाम पर हस्तक्षेप करता है और केंद्र स्तर पर योजनाएं तैयार कर उनकी क्रियान्विति का उत्तरदायित्व राज्यों को सौंपता है। इस विविधता पूर्ण देश में संपूर्ण देश की योजनाएं एक स्थान से बनाना भी अव्यावहारिक होने से इनकी सफल परिणति पर प्रश्न चिन्ह लगता है। अच्छा तो यह हो कि राज्यों में अपनी आवश्यकता एवं परिस्थितियों के अनुसार योजनाएं तैयार हो और उनकी प्रतिपूर्ति के लिए अर्थ की व्यवस्था केंद्र की ओर से की जावे, जिससे धनाभाव के कारण राज्यों द्वारा तैयार की गई योजनाओं की सफलता में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आवे। अभी तो “उल्टे बांस बरेली की कहावत चरितार्थ हो रही है।
3. यह कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग को संवैधानिक श्रेणी में लाया जाकर किसान हितैषी सकारात्मक अनुशंसाओं को बाध्यकारी बनाया जावें तथा इसके द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदनों को संसद के पटल पर रखे जाने को अनिवार्य किया जाये ।
4. यह कि पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 15 अगस्त 2003 को स्वतंत्रता दिवस समारोह में लाल किले से किसानों के लिए चुनाव आयोग जैसा सशक्त – स्वतंत्र निकाय बनाने की घोषणा को धरातल पर उतारा जाये ।
5. यह कि स्वतंत्रता के उपरांत कृषि नीति उत्पादन एवं उत्पादकता को बढ़ाने पर केंद्रित रही, किसान की आय उसका विषय नहीं था। इसी को दृष्टिगत रखते हुए आरंभ में “अधिक अन्न उपजाओ योजना” प्रभाव में रही । उसके उपरांत हरित क्रांति के नाम पर रासायनिककरण एवं मशीनीकरण आरंभ हुआ। हाइब्रिड बीज, कीटनाशक दवाइयाँ चलन में आई। इसी दिशा में खाद, बीज, कीटनाशक पर बाजार का वर्चस्व बढ़ता गया। इस बाजारीकरण की चपेट में कृषि एवं किसान निढाल होते गए। इसके अंतर्गत खेती में प्रयुक्त होने वाली सामग्री एवं संसाधनों का मूल्य निर्धारण उद्योग जगत के पास आ गया। जिनको संपूर्ण लागत पर लाभांश जोड़ने काअवसर प्राप्त था। उन्हें इस संबंध में सरकार का संरक्षण एवं सहयोग था। दूसरी ओर कृषि उपजों की लागत का निर्धारण का अवसर उत्पादक किसान के हाथ नहीं रहा। परिणामतः वह बाजार में बेचारा बन गया। जब वह कृषि में प्रयुक्त होने वाले संसाधन एवं सामग्री क्रय करने जाता तो उसे कहा जाता कि इस मूल्य पर आपको लेना हो तो ले लो वरना हटो यहां से। जब वह अपने कृषि उत्पादों को बाजार में बेचने जाता तो उससे कहा जाता इस दाम में बेचना हो तो बेचो नहीं तो हटो यहां से। नीतिगतरुप से उद्योगों को कच्चा माल एवं उपभोक्ताओं को खाद्यान्न सस्ता उपलब्ध कराने का भार किसानों के कंधों पर डाल दिया गया। सरकार ने उस भार से स्वयं को मुक्त कर लिया, जबकि यह पावन दायित्व सरकारों का ही था। यह नीति ही निरंतर चलती रही।
6. यह कि वर्ष 2015-16 में पहली बार कृषि नीति में उत्पादन एवं उत्पादकता के साथ किसानों की आय को भी जोड़ा गया। इसी के लिए उस वक्त के बजट में वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का प्रावधान किया गया। उसी के अनुसरण में वर्ष 2018-19 में न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण लागत से कम से कम डेढ़ गुना दामों पर करने की बजट में घोषणा की गई। नीति निर्धारण में शासकों की महत्वपूर्ण भूमिका होते हुए भी क्रियान्वयन के संबंध में अधिकारी तंत्र ने उन्हें सच से दूर रखने का प्रयास किया।
7. यह कि कृषि सुधारों के संबंध में वर्ष 2000 से विचार-विमर्श आरंभ हुआ। उसी के क्रम में “आदर्श कृषि उपज एवं पशुपालन विपणन (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2017 का प्रारूप तैयार हुआ। जिसे वर्ष 2018 में सभी राज्यों को भेज कर केंद्र सरकार ने इसे ही अपने कर्तव्य की इति श्री मान ली। इस संबंध में प्रभावी एवं सार्थक कार्यवाही के लिए प्रयास नहीं किया, अन्यथा केंद्र सरकार राज्यों को प्रोत्साहन देकर इसे धरातल पर उतार सकती थी। इसके पूर्व भी अनेक राज्यों में इसी से संबंधित प्रावधान विद्यमान थे, जिनमें आज्ञापक प्रावधान अपवाद स्वरूप ही थे। उन प्रावधानों को आज्ञापक बनाने के लिए कृषि उपज मंडी संबंधी कानूनों में यथोचित संशोधन आवश्यक है। यथा – राजस्थान कृषि उपज मंडी अधिनियम, 1961 की धारा 9 (2) (XII) मे एम ए वाई (MAY) शब्द को एस एच ए डबल एल (SHALL) करने एवं राजस्थान कृषि उपज मंडी नियम, 1963 के नियम 64 (3) में ‘नीलामी बोली न्यूनतम समर्थन मूल्य से शुरू होगी’ जोड़ने की आवश्यकता है। विद्यमान प्रावधानों की क्रियान्वित के संबंध में नियमों का अभाव होने से किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त नहीं हो सका। वर्ष 2018 के उपरांत उत्तराखंड एवं झारखंड ने पहल की किंतु यहां भी क्रियान्विति के लिए नियमों के समुचित प्रावधान नहीं किए गए। उत्तराखंड ने तो इस अधिनियम को वापस भी ले लिया है ।यह भी उल्लेखनीय है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्ति की सुनिश्चितता के लिए केंद्र सरकार द्वारा 12.07.2022 को गठित समिति के उपसमूह ने घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों को आरक्षित मूल्य (Reserve Price) के रूप में प्रतिपादित करने की अनुशंसा की है ।
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