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कवि-लेखक-गीतकार-फिल्मकार गुलजार
वक्त मौसम की तरह है। एक वसंत छूटता है तो दूसरे की ओर आगे बढ़ जाता है। समय को लेकर हमारी समझ यहीं तक सीमित है, मगर कवि-लेखक-गीतकार-फिल्मकार गुलजार समय की इस पहेली से बहुत आगे निकल चुके हैं। वक्त उनके अनुसार चल रहा है। गुलजार आज 90 साल के हो रहे हैं। स
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गुजरे ढाई साल से वे बच्चों के लिए इकतारा ट्रस्ट से आने वाली चौदह किताबों का गुलदस्ता ‘समय पोस्ट सीरीज’ बनाने में व्यस्त हैं। जब मैंने उनसे गुजरते-बदलते वक्त का हिसाब-किताब पूछना चाहा तो एक सीधी लाइन में शर्त रख दी- बर्खुरदार! फिल्मों की बातें फिर कभी, आज बात होगी तो सिर्फ बच्चों पर, उनके साहित्य की दुनिया और लेखन पर। गुलजार के जवाबों में जानिए- बच्चे रंग, कलम और कागज के खिलौनों से कैसे बात करते हैं…
- गुलजार साब, समय पोस्ट की 14 किताबों के गुलदस्ते में ‘आपा की आपड़ी’ और ‘हकीम अण्टा गफील’ जैसी किताबों का ख्याल कैसे आया?
बच्चों की एक पत्रिका चकमक के लिए दो कॉलम लिखा करता था। एक कॉलम पहेलियों का था। मैं एक पहेली लिखता था और बच्चों से कहता था कि इस पर एक चित्र बनाकर भेजें। किसी-किसी पहेली पर बच्चों के हजारों चित्र आते थे। एक कॉलम बच्चों से सवाल-जवाब का था। उसमें खतरा था कि बच्चों के मां-बाप सवाल पूछने लगते। मेरे साथी सुशील शुक्ल, जो चकमक पत्रिका के उन दिनों सम्पादक थे, अरसे से बच्चों के लेखन पर काम कर रहे हैं।
आजकल इकतारा का काम देख रहे हैं। साइकिल प्लूटो पत्रिकाएं देख रहे हैं। समय पोस्ट का आइडिया उन्हीं से आया और आगे बढ़ा। पहले दो-तीन किताबें बनाने का प्लान था। फिर 14 शामिल हो गईं।
आपने अपनी किताब में कौव्वों के काले रंग का भी राज खोला है?
बेशक! आपको भी बता देता हूं। बहुत से कौव्वे अदालत की इमारत पर जो हर दिन बैठते थे, वकीलों को दलीलें करते सुनते थे, बहुत हैरान होते थे। दलीलों से मिटा देते थे झगड़े जब आते थे, पहन लेते थे काले-काले चोगे। उन्हीं को देखकर ख्याल आया था कौव्वों को… चुरा लेती हैं चीलें उनके अंडे, शिकार करता है बाज, मासूम उड़ने वाली चिड़ियों का। तभी से बस वकीलों की तरह सबने पहन रखे हैं काले-काले चोगे, परिन्दों में वही सबसे सयाने हैं। एलन ने इसके सुन्दर चित्र बनाए हैं।
क्या बच्चों का साहित्य बच्चों का ही है और बड़ों का साहित्य सिर्फ बड़ों का?
आप यह बात समझिए कि बच्चों को वह साहित्य पसंद आ ही नहीं सकता, जो बड़ों को पसंद न आए। साहित्य वही है, जो बच्चों को जितना दिलचस्प लगे, उतना ही बड़ों के लिए भी हो। बड़ों के लिए एक जैसा लिखा जा सकता है, लेकिन बच्चों के लिए अलग-अलग लिखना पड़ेगा।
अगर बच्चों की जरूरत पहचान कर न लिखा जाता तो आबोल-ताबोल आज वैसे नहीं चल पाता, जैसा वह चल रहा है। ‘गूपी गाइन बाघा बाइन’ उपेन्द्र किशोर ने बच्चों के लिए लिखी थी। सत्यजीत रे जैसे निर्देशक ने इस पर फिल्म बनाई।
आज तक सब उसे देखते हैं। क्यों बनाई?
सत्यजीत समझते हैं कि बच्चों के लिए वही होना चाहिए, जो बड़े भी पसंद करें।
- आपका बड़प्पन बालपन पर कभी हावी नहीं हुआ। ‘जमीं हमको घुमाती है’ में आपकी एक नज्म की लाइन भी है- जमीं को जादू आता है… ये जादू कहां से आता है?
आपको बताऊं कि – आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की… यह गीत बच्चों के लिए नहीं है। यह सोच गुरुजी की हो सकती है। अगर आप ‘जमीं हमको घुमाती है’ पढ़ेंगे तो उसमें पता चलेगा कि मैं जो रंग दूं उसे, जमीं वो रंग देती है… अगर जामुन की गुठली दूं उसे, जामुन भी देती है। करेला तो करेला… नीबू तो नीबू। जमीं को जादू आता है। साहित्य में भी बच्चों को ऐसे ही रंग चाहिए
- आप मुंबई में रहते हैं। चित्रकार एलन शॉ बर्लिन में और सुशील शुक्ल भोपाल में रहते हैं। इस संग्रह की पूरी वर्किंग आपने जूम मीटिंग्स पर की। आप अगर एक साथ बैठते तो और क्या अलग होता?
साथ बैठते तो एलन को बर्लिन से और सुशील को भोपाल से फ्लाइट ले-लेकर मुझ तक आना पड़ता। बात तो फोन पर भी हो सकती थी। पर आधुनिक तकनीक हमें यह सुविधा देती है कि हम चेहरे भी देख सकते हैं, बात भी सुन सकते हैं। मेरी किसी बात पर आपका रिएक्शन क्या है, वह भी दिख जाता है।
इस कीमती वक्त में बच्चे आपके लिए इतने अहम क्यों हैं?
मुझे लगता है कि हमारे यहां राइटर्स बच्चों के लिए लिखना बाएं हाथ का खेल समझते हैं, बहुत कैजुअल सोच के साथ लिखते भी हैं। वही, संडे कॉलम में कुछ तुकबन्दियां कर देंगे- कितने हरे पत्ते हैं देखो कितने सच्चे हैं और फूल कितने अच्छे हैं… वही नसीहतें, हिदायतें, सीख। बच्चों को ऐसी कविताएं चाहिए, जिनसे वे खेल सकें। जैसे समय पोस्ट में आपको मिलेगा- ‘आपा की आपड़ी, पानी में जा पड़ी।’ इसी तरह के कई किरदार समय पोस्ट में हैं।
अण्टा गफील नाम के हकीम हैं, जो अजीब तरह के इलाज बताते हैं। यानी किताब की थीम ऐसी होनी चाहिए, जो बच्चों को पसंद आ सके। अगर थीम बच्चों को नापसंद है तो बड़ों को भी कभी पसंद नहीं आ सकती। और बच्चों की क्यूरोसिटी और ह्यूमर दोनों मिलाकर कोई बात कही जाएगी तो जरूर पसंद आएगी।
बाल साहित्य पर सुकुमार रे की 100 साल पुरानी ऐतिहासिक अगड़म-बगड़म कृति ‘आबोल-ताबोल’ की कुछ महक क्या समय-पोस्ट में है?
सुकुमार रे, जो प्रख्यात फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे के पिता हैं, ने आबोल-ताबोल को उनके समय के अनुसार पेश किया। ‘समय पोस्ट’ में सुशील और मैं हमारे समय के सारे संवाद बच्चों से हर महीने करते थे। यकीनन समय पोस्ट का ट्रेडिशन और इन्स्पिरेशन वहां से है। आबोल-ताबोल बच्चे भी पढ़ते हैं और बड़े भी। बेहतरीन बाल साहित्य वही है, जो बच्चों संग बड़े भी पढ़ सकें।
आपका मानना है कि बच्चे उस्ताद हैं और हम सब शागिर्द, कैसे?
बिलकुल। किताबें लिखने और बच्चों को सिखाने की कोशिश में उनसे बहुत कुछ सीखना पड़ा, तब जाकर ये किताबें मुमकिन हुईं। उनकी बोली, देखने का चश्मा और सोचने की बेतकल्लुफ आजादी… सबसे सबक लिया।
किन उस्तादों का बच्चों पर किया बड़ा काम आपको पसंद आता है?
गुलजार : सबसे बड़ा नाम तो एक परिवार का है, रे परिवार का। उपेन्द्र किशोर से लेकर सत्यजीत रे, बेटे। उनकी बहन, उनके बेटे। इनके अलावा एक बड़ा नाम है शंकर, जो शंकर वीकली निकालते हैं। साउथ में आरके लक्ष्मण बड़ा नाम है। उनका मालगुडी डेज अद्वितीय है।
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