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<p style="text-align: justify;">फ्रांस चुनाव नतीजे आने के बाद एक तरफ जहां जगह-जगह हिंसा भड़ उठी तो वहीं दूसरी तरफ किसी को स्पष्ट जनादेश नहीं मिल पाया. चार्ल्स डिकेंस की ए टेल ऑफ टू सिटीज की शुरुआती पंक्ति याद आती है- द बेस्ट ऑफ टाइम्स, द वर्स्ट ऑफ टाइम्स. यानी, फ्रांस का पूरा इतिहास ब्रिटेन की तुलना में काफी अलग है.</p>
<p style="text-align: justify;">ब्रिटेन में 33-34 फीसदी वोट मिलने पर लेबर पार्टी को इतनी बड़ी जीत मिल गई. जबकि, मरीन ली पेन को उतना ही वोट मिला, लेकिन उनके लिए जीत मुमकिन नहीं हो पाई. अब तो ये हो गया है कि जो बोलता है टू थर्ड ऑफ ए ट्राएंगल, वो मिल जाए तो तीसरा हार जाता है. ली पेन को इतना इम्प्रेसिव वोट मिलने के बावजूद सेंटर जो मैक्रों की पॉलिटिकल ग्रुपिंग है, और लेफ्ट दोनों मिल गए तो राइटिस्ट का पराजय हो गया.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>ब्रिटेन से अलग फ्रांस की राजनीति</strong></p>
<p style="text-align: justify;">हालांकि, मरीन की ये पराजय कब तक रहेगी, ये कहना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि फ्रांस का संकट बहुत गहरा है. बहुत सारी समस्याएं फ्रांस में हैं और उसको लेकर इतनी खिचड़ी पक गई कि जो लोकतंत्र को पूरा पैराडाइग्राम होता है, जिसमें लेफ्ट, राइट और सेंटर सारे एक साथ रहते हैं, वही सवालों के घेरे में आ गया है.</p>
<p style="text-align: justify;">फ्रांस के नतीजे देखने को बाद यही कहा जा सकता है कि फ्रांस के लेंफ्ट और सेंटर दोनों जीत गए, और इससे एक चीज सेंटर को सीखना भी चाहिए कि अगर आप राइट की तरफ झुकेंगे तो खत्म हो जाएंगे. आपका परिचय लेफ्ट के साथ ही रहना चाहिए.</p>
<p style="text-align: justify;">यूरोप में सोशल डेमोक्रेसी बहुत बड़ी चीज है और कहीं भी एक्स्ट्रीम राइट जो जीत रहा है, उसको ठीक करने के लिए लार्जर नेशनल इन कॉन्सोलिडेशन करना पड़ेगा. ये बात मैक्रों भूल गए थे. अब भी अगर वो सीख जाएं तब तो वो सर्वाइव कर जाएंगे, नहीं तो फ्रांस की राजनीति इस तरह से लड़खड़ाती हुई चलेगी.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>ब्रिटेन में चुनाव व्यवस्था पर छिड़ी बहस</strong></p>
<p style="text-align: justify;"> जहां तक एक पार्टी को जनादेश का सवाल है तो ये अमेरिका, हिन्दुस्तान और ब्रिटेन में ही मिलता है. इसे बोलते हैं फर्स्ट पार्टी पोस्ट सिस्टम. जहां पर आपको अगर 33 फीसदी वोट भी मिल जाए तो 400 सीट भी मिल सकती है. कुछ ऐसा ही हुआ ब्रिटेन में लेबर पार्टी के साथ. रिफॉर्म पार्टी आकर कंजर्वेटिव पार्टी का वोट काट लिया. जिसके चलते लेबर पार्टी की इतनी बड़ी जीत मुमकिन हो पाई. </p>
<p style="text-align: justify;">अब इसी वजह से इंग्लैंड में ये डिबेट शुरू हुआ है कि चुनाव व्यवस्था बदली जाए भी या नहीं. आप देखेंगे पूरा यूरोप में जो सिस्टम है, वो प्रोपोशन रिप्रजेंटेशन है. इसलिए, चाहे आप इटली बोलिए, नीदरलैंड बोलिए या फिर जर्मनी और फ्रांस… हर जगह गठबंधन की सरकार ही चलती है.</p>
<p style="text-align: justify;">एक चीज और गौर करने वाली है और वो कि हमारे लोकतंत्र कि जो स्थिति है, उसमें गठबंधन की सरकार ही ठीक रहती है, क्योंकि उसमें लोगों का रिप्रजेंटेशन ज्यादा अच्छा रहता है. उदाहरण के तौर पर, अभी इग्लैंड में जो लेबर पार्टी है, इसके पास कुल 35 फीसदी तो वोट ही है. लेकिन, जब फ्रांस में सरकार बनेगी, उसके पास कम से कम 60 फीसदी वोट होगा.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>रिप्रजेंटेशन कैसे होगा ठीक?</strong></p>
<p style="text-align: justify;">इसलिए पूरा हमारा राजनीतिक चिंतन में सबसे बड़ा डिबेट ही यही है कि रिप्रजेंटेशन को हम कैसे ठीक करें. इसमें लोगों के पूरे व्यूज है, उनके जो आर्टिकुलेशन है, वो डिसीजन मेकिंग तक कैसे पहुंचे. इस बारे में अमेरिका में काफी चर्चाएं होती है, लेकर यूरोप इसलिए इस पर चर्चा कम होती है क्योंकि वहां प्रपोशनल रिप्रजेंटेशन हैं. लेकिन अभी जो स्थिति हुई है, उसमें लगता है कि भारत, अमेरिका और ब्रिटेन में ये चर्चाएं दोबारा शुरू होगी कि हम यूरोपियन मॉडल अपनाएं. अभी के जो हमारे मॉडल है, उसमें माइनरिटी गवर्नटमेंट होती है, लेकिन सिर्फ स्टेबल गवर्नमेंट ही रखें. </p>
<p style="text-align: justify;">जहां तक फ्रांस में चुनाव परिणाम आने के बाद भड़की हिंसा की बात है तो फ्रांस में माइग्रेशन की बड़ी समस्या है, और ये समस्या पूरे यूरोप में ही है. इसीलिए, इंग्लैंड में रिफॉर्म पार्टी को इतना वोट मिल गया.</p>
<p style="text-align: justify;">लेकिन, इधर अफ्रीकन माइग्रेशन काफी संख्या में है. करीब 4 मिलियन (यानी 49 लाख) है जो फ्रांस की आबादी का करीब 5 प्रतिशत माइग्रेशन है. इनके साथ कोई इंटीग्रेशन नहीं हुआ. जैसे उदाहरण के तौर पर, आप ब्रिटिश पार्लियामेंट में देखेंगे कि मंत्री स्तर पर इतने सारे ब्लैक और इंडियन मिल जाएंगे. लेकिन, आपको फ्रांस में ये स्थिति देखने को नहीं मिलेगी.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>फ्रांस में राजनीति हिंसा का इतिहास</strong></p>
<p style="text-align: justify;">दूसरी तरफ, इंग्लैंड में टोलरेंस का लेवल है, दुनियाभर से लोग वहां पर बैठे हुए हैं और उन सभी को वहां पर मिला लिया गया है. जबकि फ्रांस की ऐसी स्थिति नहीं है. वहां पर इतने दुनियाभर के लोग नहीं है, बल्कि ज्यादातर अफ्रीका के लोग हैं. इसलिए उधर टेंशन भी ज्यादा है और इसके साथ दूसरा फैक्टर ये है कि फ्रांस में राजनीतिक हिंसा का पूरा इतिहास है.</p>
<p style="text-align: justify;">इग्लैंड में कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी बड़ी भूमिका में नहीं रही, लेकिन अभी भी फ्रांस की लोकल बॉडी, जैसे इटली के छोटे-छोटे शहर में इनका बहुत ज्यादा प्रभाव है. <br />पॉलिटिकल कल्चर में अगर बात करें तो फ्रांस का एक डिवाइडेट पॉलिटिकल कल्चर है. इग्लैंड में एक यूनिफाइड पॉलिटिकल कल्चर है. इसलिए, फ्रांस को चलाना मुश्किल काम है, जबकि इंग्लैंड ठीक-ठाक चल जाता है. </p>
<p style="text-align: justify;">दूसरा फैक्टर ये भी है कि फ्रांस में संसद का कार्यकाल 2027 तक था, ऐसे में अगर देरी से चुनाव कराते तो और अच्छा होता. उन्होंने सोचा कि अगर अभी चुनाव कराएंगे तो अपनी स्थिति मजबूत हो जाएगी. कैमरून ने भी ऐसा किया था और सोचा था कि जीत जाएँगे और कार्यकाल 5-7 साल चलेगा और ब्रेग्जिट नहीं होगा. <br />लेकिन रानजीति में तो काफी लोग गलतियां करते हैं. वाजपेयी ने भी शाइनिंग इंडिया बोलकर कुछ ऐसी ही गलतियां की थीं, जब उन्होंने समय से पहले साल 2004 में चुनाव कराया था. ये सब गैम्बलिन तो राजनीति में होता ही है और ऐसा लग रहा है कि मैक्रों साहब ने इस बार काफी बड़ी गलतियां की हैं.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]</strong><br /> </p>
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