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नई दिल्ली11 मिनट पहले
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MHADA केस की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा- कोई भी प्राइवेट प्रॉपर्टी समाज का भौतिक संसाधन नहीं है और सभी प्राइवेट प्रॉपर्टी समाज के भौतिक संसाधन है। ये दो अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। निजीकरण और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए समय के हिसाब से इनकी व्याख्या की जरूरत है।
CJI डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 9 जजों की संविधान पीठ ने यह भी कहा कि प्राइवेट और पब्लिक प्रॉपर्टी के बीच सख्त विरोधाभास नहीं हो सकता है।
कोर्ट ने कहा- आज के समय में अनुच्छेद 39 की व्याख्या नहीं की जा सकती है। समाजवाद और साम्यवाद के बेजोड़ एजेंडे को इन योजनाओं में पढ़ा जा सकता है। यह हमारा संविधान नहीं है। हम आज भी प्राइवेट प्रॉपर्टी की रक्षा करते हैं। हम अभी भी व्यवसाय जारी रखने के अधिकार की रक्षा करते हैं।
हम अभी भी इसे राष्ट्रीय एजेंडे के हिस्से के रूप में चाहते हैं। मैं इसे सरकार का एजेंडा नहीं कहता। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, 1990 से निजी क्षेत्र द्वारा निवेश को प्रोत्साहित करने की नीति रही है।
अब अगर वास्तव में हमें उत्पादन बढ़ाना है, तो निजी निवेश को प्रोत्साहित करना होगा। इसलिए भारत आज क्या है और भारत कल क्या आगे बढ़ रहा है, इसका ध्यान रखने के लिए हमारी व्याख्या नई होनी चाहिए।
पीठ ने कहा कि 1950 के दशक में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि बिजली वितरण बड़े पैमाने पर निजी कंपनियों द्वारा किया जाएगा और वे इस तथ्य के बारे में सोच भी नहीं सकते थे कि एक निजी कंपनी सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करेगी।
सुप्रीम कोर्ट में 9 जजों की संविधान पीठ दलीलें सुन रही थी कि क्या निजी संपत्तियों को भी संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) के तहत समाज का भौतिक संसाधन माना जा सकता है। राज्य द्वारा इसे अपने अधिकार में लेकर लोगों को बांटा जा सकता है?
22 साल बाद 32 साल पुरानी याचिका पर सुनवाई जारी
सुप्रीम कोर्ट में 32 साल पुरानी याचिका पर सुनवाई हो रही है। याचिका प्राइवेट प्रॉपर्टी पर किसी समुदाय या संगठन के हक को लेकर है। इससे पहले इस मामले में तीन सदस्यों और 7 सदस्यों वाली पीठ सुनवाई कर चुकी है। 1996 में तीन जजों की बेंच ने इसे 5 जजों की बेंच के पास भेजा था। उस बेंच ने साल 2001 में 7 जजों की बेंच के पास भेजा था। मामला नहीं सुलझा तो साल 2002 में इसे 9 जजों की बेंच में भेजा गया था। अब 22 साल बाद 9 जजों की बेंच 23 अप्रैल से सुनवाई कर रही है।
दरअसल, महाराष्ट्र सरकार ने पुरानी और जर्जर हो चुकीं असुरक्षित इमारतों को अधिग्रहीत करने के लिए एक कानून बनाया है। यह कानून इसलिए बनाया गया, क्योंकि किरायेदार इन इमारतों से हट नहीं रहे और मकान मालिकों के पास मरम्मत के लिए पैसे नहीं हैं।
महाराष्ट्र में ऐसी कई बिल्डिंग हैं, जो जर्जर हो चुकी हैं। मकान मालिक इनकी मरम्मत नहीं करा रहे हैं, क्योंकि किराएदार इन्हें खाली करने के लिए तैयार नहीं है।
प्राइवेट प्रॉपर्टी पर पुराने निर्णय
महाराष्ट्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा- अदालत के सामने अनुच्छेद 39 (B) की व्याख्या का सवाल था। अनुच्छेद 31C का नहीं, जिसकी वैधता 1971 में 25वें संवैधानिक संशोधन से पहले अस्तित्व में थी। इसे केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की पीठ ने बरकरार रखा है।
CJI चंद्रचूड़ ने साल 1997 में मफतलाल इंडस्ट्रीज का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा- इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि अनुच्छेद 39 (B) की 9 जजों की पीठ की व्याख्या की आवश्यकता है। मफतलाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस दृष्टिकोण को स्वीकारना मुश्किल है कि अनुच्छेद 39 (B) के तहत समुदाय के भौतिक संसाधन में निजी स्वामित्व वाली चीजें आती हैं।
जानिए क्या है संविधान का अनुच्छेद 39 (B)
संविधान के अनुच्छेद 39 (B) में प्रावधान है कि राज्य अपनी नीति को यह सुनिश्चित करने की दिशा में निर्देशित करेगा कि ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाए जो आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो’।
क्या है महाराष्ट्र सरकार का कानून?
इमारतों की मरम्मत के लिए महाराष्ट्र आवास एवं क्षेत्र विकास प्राधिकरण (MHADA) कानून 1976 के तहत इन मकानों में रहने वाले लोगों पर उपकर लगाता है। इसका भुगतान मुंबई भवन मरम्मत एवं पुनर्निर्माण बोर्ड (MBRRB) को किया जाता है, जो इन इमारतों की मरम्मत का काम करता है।
अनुच्छेद 39 (B) के तहत दायित्व को लागू करते हुए MHADA अधिनियम को साल 1986 में संशोधित किया गया था। इसमें धारा 1A को जोड़ा गया था, जिसके तहत भूमि और भवनों को प्राप्त करने की योजनाओं को क्रियान्वित करना शामिल था, ताकि उन्हें जरूरतमंद लोगों को हस्तांतरित किया जा सके।
संशोधित MHADA कानून (Maharashtra Housing and Area Development Authority Act) में अध्याय VIII-A है में प्रावधान है कि राज्य सरकार अधिगृहीत इमारतों और जिस भूमि पर वे बनी हैं, उसका अधिग्रहण कर सकती है, यदि 70 प्रतिशत रहने वाले ऐसा अनुरोध करते हैं।
जमीन के मालिकों ने लगाई याचिका
महाराष्ट्र सरकार के कानून के खिलाफ जमीन के मालिकों ने कई याचिकाएं दायर की हैं। प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन ने दावा किया है कि यह कानून मालिकों के खिलाफ भेदभाव करने वाला है। अनुच्छेद 14 के तहत समानता के उनके अधिकार का उल्लंघन है। यह मुख्य याचिका साल 1992 में दायर की गई थी।
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