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17 मिनट पहले
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चुनाव घोषित होने से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार प्रचार के लिए जी- तोड़ मेहनत कर रहे थे। बिना रुके। बिना थके। उद्देश्य यही रहा होगा कि पहली दो सरकारों की तरह तीसरी बार भी मज़बूत सरकार आए ताकि जो देश हित के काम सोच रखे थे, वे निर्बाध रूप से लगातार होते जाएं। लेकिन लगता है अब कुछ अलग ही होगा। जो मेहनत प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान की, अब पूरे पाँच साल करनी होगी।
गठबंधन सरकार में अक्सर ऐसा ही होता है। कभी किसी सहयोगी दल को कोई आपत्ति होगी। कभी किसी सहयोगी की कोई और समस्या होगी। सभी दलों की एक-एक आपत्तियाँ, समस्याएँ हल करते हुए चलना होगा। हालाँकि इस बार प्रधानमंत्री को गठबंधन सरकार चलाने में सहूलियत ही होगी क्योंकि उनके दो बड़े सहयोगी चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार हैं।
ये दोनों ही अपने- अपने राज्यों के मुख्यमंत्री हैं। निश्चित तौर पर वे अपने राज्यों की सहूलियत और विकास कार्यों के लिए बहुत हद तक केंद्र सरकार पर निर्भर रहेंगे। केंद्र द्वारा यह मदद राज्य सरकार को दी जाती रहेगी तो चीजें आसानी से चलती रहेंगी।
नीतीश कुमार के राज्य बिहार में तो अगले साल विधानसभा चुनाव भी होंगे। चुनाव पूर्व नीतीश अपने राज्य में विकास की नई योजनाएँ लाकर जनता हितैषी सरकार की छवि बनाने की कोशिश करेंगे। इसके लिए क़दम-क़दम पर उन्हें प्रधानमंत्री के सहयोग की ज़रूरत रहेगी। इसलिए किसी के पलटी मारने की फ़िलहाल कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती। सरकार चलती रहेगी।
फिर उन मुद्दों का क्या होगा, जो भाजपा सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल के लिए पहले से ही तय कर रखे थे? निश्चित ही वे सब काम उस गति से तो नहीं ही चल पाएंगे जो भाजपा सरकार ने सोच रखी थी। कुछ कामों में देरी होगी, कुछ को हो सकता है समय का तक़ाज़ा मानकर रोकना भी पड़े। लेकिन इतना तय है कि लोक कल्याण के काम होते रहेंगे और इनमें कोई अड़चन नहीं आएगी।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी को एनडीए संसदीय दल का नेता चुन लिया गया है और उन्होंने सहयोगी दलों के साथ राष्ट्रपति भवन जाकर सरकार बनाने का दावा भी कर दिया हैं। संभवतया नौ जून को वे पूरे मंत्रिमंडल के साथ शपथ लेंगे। तब तक मंत्रिमंडल के गठन और उसमें अपनी हिस्सेदारी की सहयोगी दलों की माँगों को भी सुलझा लिया जाएगा। बहुत हद तक सबकुछ तय हो ही चुका है।
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