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नई दिल्ली5 घंटे पहलेलेखक: कृष्ण मोहन तिवारी
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ऑटोमोबाइल के सबसे बड़े बाजार चीन ने दुनियाभर की ऑटो इंडस्ट्री में तहलका मचा दिया है। यूरोप की फॉक्सवैगन, मर्सिडीज-बेंज, एस्टन मार्टिन, बीएमडब्ल्यू जैसी कंपनियों को अपनी पेट्रोल और ईवी कारें चीन में बेचने में पसीना आ रहा है। वहीं चीन अपनी सस्ती ईवी कारों की पैठ दुनियाभर में बढ़ाता जा रहा है।
हालात ये हैं कि चीन में यूरोपीय कंपनियां दम तोड़ रही हैं। जर्मन कंपनी फॉक्सवैगन की चार दशक की बादशाहत ध्वस्त होने की कगार पर है। कंपनी की इस साल वहां बिक्री 10% से अधिक घटी है। कंपनी की 30% आय चीन से होती है, लेकिन जुलाई-सितंबर तिमाही में मुनाफा 64% तक गिर गया। कंपनी 87 साल में पहली बार जर्मनी में 3 कारखाने बंद करने जा रही है। चीन में भी प्रोडक्शन घटाना पड़ रहा है।
ऑटो इंडस्ट्री में आए इस बदलाव का कारण चीन की आक्रामक नीति है। दरअसल चीन के सरकारी बैंक और अन्य सरकारी उपक्रम स्थानीय ऑटो कंपनियों को भारी सब्सिडी दे रहे हैं। इससे लागत घट रही है। अल्फावैल्यू के एनालिस्ट एड्रियन ब्रासी के मुताबिक, सब्सिडी के चलते चीनी कारों की लागत 30% कम है। इलेक्ट्रिक कारें 50% तक छूट पर उतारी जा रही हैं।
चीन में ऑटोमोबाइल निर्माताओं के संगठन सीएएएम के अनुसार, बीते साल 3 करोड़ से अधिक कारें बनीं। 52 लाख निर्यात हुईं। हालांकि, चीन का निर्यात उस प्रारंभिक स्थिति में है, जहां कोरियाई कंपनी ह्युंडई 70 के दशक में थी।
50% से अधिक ईवी चीन में बिक रहीं
चीन ने 2000 में ईवी पर शिफ्ट होने की आक्रामक नीति बनाई। उसे अहसास हो गया था कि वह पेट्रोल-डीजल कारों में अमेरिकी, जर्मन, कोरियाई, जापानी कंपनियों को मात नहीं दे पाएगा। ऑटो इंजीनियर से मंत्री बने वान गैंग ने 2009 से ईवी कंपनियों को सब्सिडी देनी शुरू की। 2022 तक 2.5 लाख करोड़ रु. से अधिक मदद दी गई। आज दुनिया की 50% से अधिक ईवी चीन में बिकती हैं।
चीन के बाहर चीनी कारों की बिक्री साढ़े 5 गुना बढ़ी, हिस्सेदारी भी बढ़ी
जैटो डायनेमिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 से 2023 के बीच घरेलू बाजार के बाहर चीनी कारों की बिक्री 5.4 गुना बढ़ी। 2023 में, हल्के चीनी वाहनों की वैश्विक बिक्री अमेरिकी कंपनियों द्वारा पंजीकृत कुल 1,35,54,305 यूनिट्स तक पहुंच गई। इसमें सालाना 23% की वृद्धि देखी जा रही है। इसके विपरीत, अमेरिकी और यूरोपीय ब्रांड के हल्के वाहनों की बिक्री 9% बढ़ी, जबकि जापानी ब्रांड के हल्के वाहनों की बिक्री 6% बढ़ी। हालांकि बढ़ते टैरिफ के चलते यूरोप और अमेरिकी बाजारों में इस साल चीनी कारों की बिक्री में सुस्ती के संकेत हैं।
जैटो के ग्लोबल एनालिस्ट फेलिफ मुनोज कहते हैं, ‘यूरोप में चीनी ब्रांड की वृद्धि इस वर्ष के पहले कुछ महीनों में धीमी हो गई। इसके चलते चीनी ओईएम ने विकासशील और उभरती हुई इकोनॉमी पर फोकस किया है। 2022 से 2023 के बीच, मध्य पूर्व में चीनी कारों की हिस्सेदारी 12.9% से 16.8% हो गई। यूरेशिया में 12.4% से बढ़कर 33.3% हो गई। दक्षिण पूर्व एशिया-प्रशांत और अफ्रीका में भी 1.9 और 2.3% बढ़ गई।
यूरोप में कारों के 50, चीन में 140 ब्रांड; पेट्रोल से ईवी 19% सस्ती
जैटो डायनेमिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक ईवी को लेकर चीन की आक्रामक नीति का असर यह है कि पेट्रोल-डीजल गाड़ियों की तुलना में ईवी की कीमतें 19% तक कम हैं। वहां कार बाजार में ईवी की हिस्सेदारी 20% पहुंच गई है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि यूरोप में 50 ब्रांड है, अमेरिका-जापान में 14-14 ब्रांड हैं। जबकि चीन में 140 ब्रांड हैं। साथ ही, पश्चिमी कार मेकर की तुलना में इनकी प्रोडक्शन क्षमता 30% तेज है।
चीन यूरोपीय कारों की बादशाहत कैसे खत्म कर रहा
- बीते दशकों में चीन का उच्च मध्यम वर्ग लग्जरी कारों को स्टेटस सिंबल मान रहा था। 2023 में मर्सिडीज-बेंज ने 25 लाख में से एक तिहाई कारें चीन में बेचीं। यूरोपीय निर्माताओं को ये निर्भरता अब भारी पड़ रही।
- चीन अपने लोगों को सस्ती ईवी खरीदने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। यही नहीं, चीन का दुनियाभर के ऑटोमोबाइल बाजार में मार्केट शेयर करीब 21% है।
- चीन ने यूरोपीय मार्केट में भी ‘सस्ती ईवी’ उतारकर सेंटीमेंट बदल दिए हैं। हालात ये हैं कि वहां चीनी ईवी की हिस्सेदारी 25% पहुंच गई है। इसीलिए यूरोपीय देशों ने चीनी गाड़ियों पर 45% तक टैरिफ लगा दिया है।
- टैरिफ से मुकाबले के लिए चीन ने विश्व व्यापार संगठन में अपील की है। वह यूरोपीय और पश्चिमी देशों को प्रदूषण का दोषी ठहराते हुए विदेशी कंपनियों पर ‘प्रदूषण संरक्षण शुल्क’ लगाने जा रहा है।
- अमेरिका, कनाडा ने चीनी वाहनों पर 100% टैरिफ लगाया है। इससे निपटने के लिए चीनी कंपनियां दुनियाभर में ईवी प्लांट लगा रही हैं।
- बीवाईडी तुर्की-हंगरी में नींव रख चुकी है, मैक्सिको में प्लांट लगा रही है। अन्य चीनी निर्माता दक्षिण अमेरिका में प्लांट लगा रहे हैं। चीन वही कर रहा है, जो 60 के दशक में जापान और 80 के दशक में कोरिया ने किया था।
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