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सुप्रीम कोर्ट ने बीएनएस कानून से अप्राकृतिक यौन संबंध के अपराधों के लिए दंडात्मक प्रावधानों को बाहर करने के खिलाफ दायर याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। बीएनएस ने हाल ही में ब्रिटिशकालीन भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का स्थान लिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने नए बीएनएस कानून में आईपीसी की धारा 377 के समान दंडनीय प्रावधानों को बाहर करने के खिलाफ दायर की गई याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून बनाना संसद का काम है। आईपीसी में धारा 377 के तहत अप्राकृतिक यौन संबंध अपराध था। भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) ने हाल ही में ब्रिटिशकालीन भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का स्थान लिया है।
चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने सोमवार को कहा कि यह मुद्दा संसद के क्षेत्राधिकार में आता है, इसलिए वह इस मामले में कोई निर्देश नहीं दे सकती।
बेंच ने इस मुद्दे पर याचिकाकर्ता को सरकार से संपर्क करने की अनुमति देते हुए कहा, ‘‘हम संसद को कानून बनाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। आर्टिकल 142 के तहत यह अदालत यह निर्देश नहीं दे सकती कि कोई विशेष कृत्य अपराध है। यह काम संसद के अधिकार क्षेत्र में आता है।’’
आईपीसी की धारा 377 के तहत दो वयस्कों के बीच गैर-सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध, नाबालिगों के साथ यौन क्रियाएं और पशुगमन को दंडित किया जाता है। हालांकि, 6 सितंबर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने दो वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट पूजा शर्मा की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें बीएनएस के अधिनियमन से पैदा हुई ‘आवश्यक कानूनी खामियों’ को दूर करने की मांग की गई थी। याचिका में कहा गया है, ‘‘प्रतिवादी (अधिकारियों) की ओर से की गई चूक के कारण गैर-सहमति वाले अप्राकृतिक यौन संबंधों के पीड़ितों के लिए कोई कानूनी उपाय उपलब्ध नहीं है।”
दिल्ली हाईकोर्ट ने अगस्त, 2024 में हाल ही में लागू बीएनएस से अप्राकृतिक यौन संबंध के अपराधों के लिए दंडात्मक प्रावधानों को बाहर करने पर केंद्र से अपना रुख स्पष्ट करने के लिए कहा था। अदालत ने कहा था कि विधायिका को गैर-सहमति वाले अप्राकृतिक यौन संबंधों के मुद्दे का भी ध्यान रखना चाहिए। बता दें कि, आईपीसी की जगह लेने वाला बीएनएस 1 जुलाई, 2024 से लागू हुआ था।
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