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मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के टिगरिया गांव में पांच हजार वर्ष पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता आज भी कलाकृति के जरिए जीवंत है। यहां बनी कलाकृति की देश ही नहीं विदेशों में भी डिमांड है। इस गांव को भारत सरकार से क्राफ्ट विलेज का तमगा हासिल है।
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यही वजह है कि गुजरात के जीएलएस इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन के 30 स्टूडेंट्स का दल यहां बन रही कलाकृति को समझने गांव पहुंचा है। ये पिछले आठ दिनों से यहां कलाकारों से बारीकियों को सीख रहे हैं। स्टूडेंट्स का कहना है कि हमने देखा कि कैसे मोम के जरिए कलाकार पीतल को आकार देते हैं। हम इस पहलू पर भी काम कर रहे हैं कि कैसे इसे हम अपनी पढ़ाई में शामिल कर सकें। हम इसे और आगे लेकर जाना चाहते हैं। यह कला अंतर्राष्ट्रीय प्रोडक्ट्स बनाने लायक है।
दैनिक भास्कर की टीम गुजरात से आए छात्रों से मिलने गांव में पहुंची और कलाकारों के साथ ही कलाकृति के बारे में भी जानने की कोशिश की…
ग्रामीण ने बताया कि घातू को आग में पिघलाने के बाद प्रक्रिया के तहत कलाकृति बनाई जाती है।
सबसे पहले जानिए, क्राफ्ट विलेज और उस समुदाय को जो इस काम में जुटा है बैतूल जिला मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर दूर बसा है टिगरिया गांव। यहां भरैवा समुदाय का वाघमारे परिवार हस्तशिल्प कला को जीवित रखने के लिए जुआ हुआ है। यह परिवार पीतल और बेल मेटल से आदिवासी संस्कृति से जुड़ी कलाकृतियां बनाता है।
युवा कलाकार अनिल वाघमारे बताते हैं कि पीतल को पिघलाकर पहले उनके परिवार के लोग घुंघरू, बैलों की घंटी, बर्तन और आदिवासी समाज के लिए ज्वैलरी तैयार किया करते थे। समय के साथ हमने इसमें बदलाव किया और सजावटी सामग्री बनाना शुरू किया। हमने आदिवासी संस्कृति से जुड़े सामान, आदिवासी नृत्य मुद्रा में जोड़े, देवी-देवताओं की प्रतिमाएं बनाना शुरू किया।। इसी धातु से स्टैच्यू, हैंगर, पॉट्स भी तैयार करने लगे।
भरैवा समुदाय का यह यह परंपरागत काम है, जो अब लुप्त होता जा रहा है। कभी जिले में ही आधा दर्जन से ज्यादा गांव में बड़ी संख्या में इसे तैयार किया जाता था, लेकिन अब चुनिंदा कारीगरी की बचे हैं। पहले आठनेर इलाके की वरखेड़, शाहपुर इलाके के फोगरिया, चिचोली इलाके की सीताकामत, चूना हजूरी और बोरदेही इलाके के कलमेश्वरा में इन कलाकृतियों को बनाया जाता था।
बैतूल के टिगरिया गांव में गुजरात से स्टूडेंट्स कलाकृति के बारे में सीखने के लिए आए हैं।
गुजरात से आए 30 स्टूडेंट सीख रहे हुनर भरैवा कला की उत्कृष्टता, इसकी सफाई सीखने के लिए आठ दिनों से 30 स्टूडेंट्स गांव में रह रहा है। छात्र बताते हैं कि वे परंपरागत कारीगरी को सीखना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने बैतूल का रुख किया। मानिनी बताती हैं कि उन्होंने काम की बारीकियों को बहुत करीब से देखा और सीखा है। कैसे और कब कितनी मिट्टी लगाई जाए, कैसे आकृतियों को ढाला जाए।
स्टूडेंट निमिष शर्मा प्रोजेक्ट डिजाइन के स्टूडेंट हैं। वे कहते हैं- यहां आने से पहले डांग गुजरात में बांस से फर्नीचर बनाना सीखा था। यह ट्रेडिशनल आर्ट है, जो ट्रेडिशनल ट्राइब्स ही बनाते हैं। हमारा सीखने का उद्देश्य यही था कि कैसे हम इसे पढ़ाई में ला सकते हैं और इसे आगे बढ़ा सकते हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय प्रोडक्ट बनाने लायक कला है।
पीतल को पिघलाकर मोम से देते हैं आकार कलाकार अनिल बाघमारे कहते हैं पीतल को पिघलाकर बनाई जाने वाली कलाकृतियों को पहले मोम से बने विभिन्न आकार में ढाला जाता है। सजावटी सामानों की इन कलाकृतियों में मोर चिमनी, हिरण, हाथी, लालटेन, भगवान की प्रतिमाएं खास हैं। बनाई गई चीजों को पीतल में ढालकर सफाई से सुंदर बनाया जाता है और फिर इसे क्राफ्ट बाजार में भेज दिया जाता है, जहां यह ऊंचे दामों में बिकती है।
5 हजार साल पुरानी है कला अनिल का कहना है कि जब आधुनिक तरीकों का आविष्कार नहीं हुआ था। हड़प्पा की प्रसिद्ध ‘नृत्य करने वाली लड़की’, जो 5000 साल पुरानी है, खोई हुई मोम की ढलाई का सबसे पुराना ज्ञात नमूना है। माना जाता है कि इस तकनीक की उत्पत्ति ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ में लगभग 3500 ईसा पूर्व हुई थी।
ढोकरा तकनीक से बनी दो तांबे की आकृतियां गुजरात के एक प्राचीन हड़प्पा स्थल लोथल से खुदाई में मिली थी। ऐसे ही पहली शताब्दी ईसा पूर्व की युवा हार्पोक्रेट्स (मौन के देवता) की मूर्ति, ‘तक्षशिला’ स्थल से खुदाई करके प्राप्त की गई थी। ये सभी खोई हुई मोम प्रक्रिया का उपयोग करके बनाई गई थीं।
भरैवा जनजाति के लिए आज भी यह रोजगार परिवार के पालन का अच्छा जरिया है। अनिल बताते हैं कि मैंने इस कला को बचाने के लिए पढ़ाई छोड़ दी और पूरी तरह से इस कला को ऊंचाइयां देने में जुट गया। अब ऑर्डर मिलने पर कलाकृति बनाते हैं।
उनका कहना है कि सरकारी दरें बेहद कम हैं। सरकार कलाकृतियों को जिस कीमत पर खरीदती है, उस कीमत पर मजदूरी भी उनके लिए महंगी पड़ रही है। पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार इस विधा के लिए जितनी सहूलियत दे रही है। वैसा मध्यप्रदेश सरकार की ओर से कलाकारों को नहीं मिल रही। कई बार मटेरियल, तो कई बार मोम और पीतल की कमी से भी जूझना पड़ता है।
महिलाओं को भी दी जा रही ट्रेनिंग बलवंत वाघमारे बताते हैं कि वे अभी 10 से 15 महिलाओं को ट्रेनिंग भी दे रहे हैं, जिससे उन्हें रोजगार मिल सके और उन्हें भी सहयोग मिले। प्रशिक्षण ले रही महिलाओं का कहना है कि इन कलाकृतियों को बनाने से उन्हें रोजगार मिल रहा है। पहले वे सिलाई का काम करती थीं, जिसमें कम कमाई होती थी। अब वे प्रतिदिन 300 से 500 रुपए तक कमा रही हैं।
संगीता उईके बताती हैं कि उन्हें इस कला के लिए काम करने में आत्म संतुष्टि मिलती है। संस्कृति से जुड़े होने के कारण कलाकृतियों को बनाने में आनंद आता है। वे बताती हैं कि कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कला के इस काम से जुड़ सकता है। वे एक दिन में तीन से चार मॉडल बना लेती हैं, जिससे उनकी मजदूरी निकल आती है।
सीमा नामदेव बताती हैं कि लोग जब उनकी बनाई कलाकृतियों को देखने आते हैं तो इन्हें खूब सरहाते हैं। उनके बनाए पैटर्न में सफाई ज्यादा होती है। अब डिजाइन डालने का अनुभव इतना हो गया है कि कलाकृतियों की आसानी से डिजाइनिंग कर ली जाती है।
प्राचीनकाल में होता था कलाकृतियों का निर्माण प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं के दरबार से लेकर शयन कक्ष में सजने वाली कलाकृतियों को वाघमारे परिवार आज भी आकार दे रहा है। इन कलाकृतियों की देश के बाहर विदेशों में भी बड़ी मांग है।
लदंन और अमेरिका तक भेजी जाती हैं कलाकृतियां बेल मेटल एक तरह की पंचधातु है। इसके लिए पीतल, तांबा, कासा, जस्ता, एल्यूमनियम और लोहे को एक साथ मिलाकर गलाया जाता है। इसमें मुख्य मात्रा पीतल की होती है। पंचधातु कहलाने वाली इस सामग्री में सभी सामग्रियों को एक जैसी मात्रा में मिलाकर आग में जलाया जाता है।
आग में 1000 सैंटिग्रेड से ज्यादा की गर्मी पर पिघलाने के बाद इस धातु को सांचों में बनी कलाकृतियों में डाल दिया जाता है। मिट्टी के सांचो में बनी कलाकृतियों को सबसे पहले मोम के आकार में ढालने के बाद कलाकृतियों पर मिट्टी का लेप लगा दिया जाता है। इस लेप को तेज भट्टी में पकाया जाता है।
जब यह भट्टी पर पक जाती है तो कलाकृति को भट्टी से निकालकर उसमें बेल मेटल की सामग्री का तरल डाल दिया जाता है। कुछ पलों में ही यह तरल ठोस अवस्था में आ जाता है और इस तरह यह कलाकृति बनकर तैयार हो जाती है, जिसके बाद इस कलाकृति को मिट्टी के आवरण से निकालकर साफ किया जाता है और फिर साफ करने के बाद इसे बाजार में भेज दिया जाता है। ये कलाकृतियां लंदन और अमेरिका तक भेजी जाती हैं। इसके लिए लंदन में आयोजित होने वाली प्रदर्शनों में भी यहां की कलाकारों को आमंत्रित किया जा चुका है।
खुद को आदिवासी मानता है भरैवा समुदाय भरैवा एक तरह से आदिवासी संस्कृति अपनाने वाला समाज है। रीति-रस्में, तीज-त्योहार, देव पूजा और परंपराएं बिल्कुल आदिवासियों जैसी है, लेकिन इस समुदाय को सरकार आदिवासी नहीं मानती। लिहाजा इन्हें सामान्य श्रेणी में ही रखा गया है।
कलेक्टर नरेन्द्र कुमार सूर्यवंशी का कहना है कि लगभग 70-80 भैरवा परिवार हमारे यहां रहते हैं। कला के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं। जिला पंचायत के माध्यम से इन्हें आगे बढ़ाने के काम किए जा रहे हैं। इनकी कलाकृतियों को प्रदर्शनी में भेजते हैं, ताकि इनका आर्ट आगे आए। जिला पंचायत अभी प्लान कर रहा है कि टूरिज्म के जरिए इनका काम आगे बढ़ाया जाए।
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