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पेरिस पैरालिंपिक 2024 में मध्यप्रदेश के दो खिलाड़ियों ने ब्रॉन्ज मेडल जीते हैं। हालांकि, इनके लिए पैरालिंपिक तक पहुंचने और मेडल जीतने का सफर इतना आसान नहीं रहा है। 10 मीटर एयर पिस्टल शूटिंग में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली जबलपुर की रुबीना फ्रांसिस तो शूट
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वहीं, जूडो में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाले सीहोर के कपिल परमार 2009 में एक हादसे के बाद कोमा में चले गए थे। दैनिक भास्कर ने दोनों ही खिलाड़ियों से उनके इन मुश्किल हालात और इससे उबरने के बारे में बातचीत की। पढ़िए रिपोर्ट…
डिसिप्लिन, सेल्फ कंट्रोल और पेशेंस से मिला मोटिवेशन: रुबीना
1. स्पोर्ट्स जर्नी कैसे शुरू हुई?
साल 2015 की बात है, मैं 10वीं क्लास में थी। हमारे स्कूल में टैलेंट हंट कॉम्पिटिशन हुआ। ओलिंपिक मेडलिस्ट गगन नारंग की एकेडमी ने ये कॉम्पिटिशन कराया था। इसकी रजिस्ट्रेशन फीस 100 रु. थी। मैंने पापा से कहा कि मुझे इसमें हिस्सा लेना है तो वे बोले- तुम्हारे पास पॉकेट मनी है न। मैंने कहा कि ये खर्च हो जाएंगे तो फिर मैं क्या करूंगी।
उन्होंने कहा- एक बार कोशिश करो, फिर बाद में देखेंगे। मैंने रजिस्ट्रेशन कराया। पहली बार पिस्टल हाथ में ली। 5 में से 4 राउंड शूट किए। जबलपुर में ऐसा करने वाली मैं इकलौती थी। टैलेंट हंट खत्म हो गया, लेकिन इसके बाद कुछ नहीं हुआ।
एक दिन पापा ने पूछा कि क्या हुआ तुम्हारे टैलेंट हंट का? तब मैंने एकेडमी में कॉल किया तो रिएक्शन आया कि कब एकेडमी जॉइन करेंगी? इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
पैरालिंपिक में ब्रॉन्ज मेडल जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रुबीना फ्रांसिस।
2. नॉर्मल शूटिंग प्लेयर से ट्रेनिंग कैसे अलग रही?
शुरुआत में चेयर पर बैठकर शूटिंग करती थी। इसके कारण मेरी कमर में दर्द होता था। मुझे आइडिया नहीं था कि पैरा एथलीट के तौर पर कैसे अपने गेम को सही करना है। भोपाल शूटिंग एकेडमी में स्पेशल शूज पहनकर खेलने को कहा गया।
उसके बाद भी मेरे पैरों की मूवमेंट रुक नहीं रही थी, तब जसपाल राणा सर ने मुझे मुंबई जाकर स्पेशल सोल बनवाने के लिए कहा। इसकी बदौलत मेरे पैरों की मूवमेंट एक नॉर्मल प्लेयर जैसी हो गई और मेरी परफॉर्मेंस ठीक होती चली गई।
3. कब ख्याल आया कि ओलिंपिक खेल सकती हैं?
जब मैंने शूटिंग शुरू की, तब ओलिंपिक के बारे में इतना जानती नहीं थी। शूटिंग करते हुए चार साल बीत चुके थे। इसके बाद पेरू लीमा में पैरा वर्ल्ड कप में पार्टिसिपेट करने का मौका मिला, यहां गोल्ड जीता। साथ ही टोक्यो ओलिंपिक का टिकट भी मिला। तब मुझे लगा कि मैं अब तक बच्चों की तरह खेल रही थी। इसके बाद मेरी ट्रेनिंग और विजन बदल गया।
4. टोक्यो में क्या हुआ और ये अनुभव कैसा रहा?
मुझे टोक्यो ओलिंपिक का कोटा मिला, तब तैयारी के लिए बहुत कम दिन बचे थे। मैं ठीक तरीके से तैयारी नहीं कर सकी। मेरी सातवीं रेंक आई। इसके बाद मैं डिप्रेशन में चली गई। ये हार मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी।
टोक्यो में फेल होने के बाद मैंने शूटिंग छोड़ने का मन बना लिया था। मैं अपनी पढ़ाई की तरफ लौटने का सोचने लगी। कई दिन तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। मम्मी-पापा ने हौसला बढ़ाया, मगर जब वे शूटिंग शुरू करने के लिए कहते तो मैं भड़क जाती थी।
5. डिप्रेशन से बाहर कैसे निकली?
मेरे कोच सुभाष सर ने हौसला बढ़ाया। हार के बाद मैं उनसे बात करने की स्थिति में नहीं थी। 6 महीने तक मैंने उनके कॉल रिसीव नहीं किए। मुझे लोगों ने समझाया, तब मैंने उनसे बात की। उन्होंने केवल इतना कहा- फिर से शुरू करो।
उन्होंने मुझे देहरादून भेज दिया। वहां मैंने मेडिटेशन और योगा क्लासेस अटैंड की। वे मुझे डिप्रेशन से बाहर निकालना चाहते थे। वहां से लौटकर मैंने अपना नेचुरल गेम खेलना शुरू किया। मेरा सेल्फ कॉन्फिडेंस वापस आया। मैंने पेरिस ओलिंपिक का कोटा हासिल किया।
6. अब खुद को मोटिवेट कैसे करती हैं?
डिसिप्लिन, सेल्फ कंट्रोल और पेशेंस… ये तीन चीजें मैने सीख ली हैं। मेरी कामयाबी में इनका बड़ा रोल है। इस गेम में डेढ़-दो घंटे में 60 शूट करना होते हैं। अगर पेशेंस और सेल्फ कंट्रोल नहीं है तो एक खराब शॉट पूरा गेम खराब कर देगा। हर समय आपको बेहतर ही करना है।
ओवर एक्साइटमेंट भी नहीं होना चाहिए। सिचुएशन कोई भी हो, आपको खुद को कंट्रोल करना बेहद जरूरी है। यही लाइफ है। बाकी गेम में स्टांस, आई साइट, फॉलो थ्रू, इन सब बातों का भी ख्याल रखना पड़ता है।
7. फ्यूचर प्लानिंग क्या है?
मुझे और मेहनत करना है। गोल्ड जीतकर ओलिंपिक में डबल मेडलिस्ट बनना है। इसके साथ ही मैं चाहती हूं कि मेरे जैसे बच्चे खेलों में आएं। मैं उन्हें मोटिवेट करूंगी। अपनी स्पोर्ट्स किट, शूज, लैंस उन्हें डोनेट करूंगी। जब भी मदद का मौका मिलेगा, तब करूंगी। फिलहाल तो अभी शूटिंग में ज्यादा बिजी हूं।
आज मैं जो कुछ हूं, मां की वजह से हूं: कपिल
1. जूडो खेलना कैसे शुरू किया?
मैं पहले कुश्ती खेलता था, इसलिए मेरा बेसिक अच्छा है। 2009 में मेरे साथ एक हादसा हो गया और मैं कोमा में चला गया। मुझे नहीं पता था कि मेरी आगे की जिंदगी कैसी रहेगी। मुझे रिकवर होने में तीन साल लगे। मैं कुश्ती से जुड़ा हुआ था इसलिए लोगों ने सुझाव दिया कि डिसेबल लोगों के लिए जूडो में अलग संभावनाएं हैं।
2. क्या था वह हादसा?
2009 में खेत में पानी की मोटर बंद करने गया था। तार को हाथ लगाते ही जोरदार बिजली का झटका लगा था। मैं लगभग ब्लाइंड हो गया। पहले सिंपल चश्मा लगा, फिर नंबर इतना बढ़ गया कि नॉर्मल चश्मा काम का ही नहीं रहा। 80 फीसदी से ज्यादा ब्लाइंडनेस आ गई।
जो डॉक्टर मेरा इलाज कर रहे थे, उन्होंने कहा कि 35 की उम्र तक आते आते मैं आंखों की रोशनी खो दूंगा। मेरी आंख की नस में दिक्कत है, जिसका ऑपरेशन नहीं हो सकता। देश-विदेश के बहुत से डॉक्टरों को दिखाया, सभी ने एक ही बात की।
3. कोमा से बाहर कैसे आए?
आज मैं जो कुछ हूं, मेरी मां की वजह से हूं। मेरी मां ने मुझे पैरों पर खड़ा किया है। पापा तो हार मान चुके थे। कहते थे कि इसका कुछ नहीं होगा।
मेरी मां ने हार नहीं मानी, दो साल तक ट्यूब से खाना खिलाया। मैं तो हिल भी नहीं सकता था। कोमा में रहने की वजह से सारे काम बिस्तर पर ही होते थे। मां ने मेरा साथ नहीं छोड़ा।
4. परिवार का अब क्या रिएक्शन है?
परिवार ही तो मेरी ताकत है। जब छोटा था तो एक ही लालच था कि भोपाल संभाग की स्पोर्ट्स किट चाहिए। इसमें लोअर, टीशर्ट, ट्रैक सूट और जूते मिलते थे। मैं नंगे पैर कुश्ती खेलता था। मम्मी-पापा मजदूरी करते थे। उनके साथ मैं भी मजदूरी करने जाता था। पापा ने सीहोर से भोपाल के बीच टैक्सी भी चलाई।
जब 2019 में मैंने कॉमनवेल्थ में पहला मेडल जीता, तब उन्होंने टैक्सी चलाना बंद कर दिया। हमारी आज भी चाय और मावा बाटी की दुकान है। ये दुकान मेरी पहचान है।
5. नॉर्मल प्लेयर से ट्रेनिंग कितनी अलग है?
मैं ब्लाइंड प्लेयर्स के साथ ट्रेनिंग ही नहीं करता। मैं अपनी सारी प्रैक्टिस नॉर्मल प्लेयर्स के साथ करता हूं। वो मुझे हरा नहीं पाते। मैं 60 किलो कैटेगरी में वर्ल्ड नंबर वन हूं। मेरे 2700 पॉइंट हैं। जो दूसरे नंबर पर है, उसके 1400 पॉइंट हैं।
6. फ्यूचर प्लानिंग क्या है?
अब मेडल जीतने के बाद सबका माइंडसेट बदल गया है। अब लोग कहते हैं कि हमें भैया जैसा बनना है। रोजाना घर पर लोग मिलने आते हैं। मैं ब्लाइंड स्कूल में लेक्चर देने जाता हूं। वे बच्चे भी कुछ कर सकते हैं। मुझे उनके लिए बहुत कुछ करना है। मैं ऐसे बच्चों का सहारा बनना चाहता हूं।
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