साहित्य का उद्देश्य या दृष्टि जो पहले थी आज भी वही है, लोकहित या मानवहित। और रचनाकार कमोवेश उसी पर चल रहा है। वह प्रकृति या पूरे ब्रह्माण्ड को मानव का साथी-सहयोगी, नियंता पहले भी समझता था आज भी समझता है। यही सत्य भी है। बिना प्राकृतिक सहयोग के मनुष्य का अस्तित्व नहीं है। प्रकृति के सहयोगी होने पर आदमी की सभी खुशियाँ उत्सव में बदल जाती हैं और कहीं प्रकृति प्रतिकूल हो गयी तो उत्सव गमी का रूप ले लेता है। रचनाकार आदमी के इसी सुख-दु:ख की गाथा लिखता है। राकेश शरण मिश्र ‘गुरु’ ने अपने काव्य संग्रह “खामोश कैसे रहूँ” में अपनी खामोशी तोड़ते हुए मानव जीवन से जुड़े अनेक विषयों-प्रसंगों की काव्यात्मक प्रस्तुति की है। वह एक सामान्य नागरिक की भाँति सुख-दु:ख के बीच से गुजरते हैं। वे कभी आशावान दिखाई देते हैं तो कभी निराशा के बीच होते हैं। उन्हें अपना देश, उसके पर्व-त्योहार से बहुत लगाव है। वह अपने इतिहास को कसौटी पर कसते हैं, उसमें उन्हें जो अच्छा लगता है उसकी वन्दना करके हैं जो नही जँचता उसे प्रश्नों के दायरे में खड़ा करते हैं। उनकी काव्यात्मक दृष्टि में माननीय संवेदना तो है ही, रिश्तों-नातों का भी खास महत्व है। उनके यहाँ रोटी एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में उपस्थित हैं। इसी प्रकार वे बेटी की भ्रूण हत्या के विषय को भी प्रखरता से उठाते हैं। काव्य लेखन की इस यात्रा में वह अपने साथियों, सहयोगियों व रास्ता दिखाने वाले विद्वतजनों को बड़ी आत्मीयता से याद करते हैं। चूँकि रचनाएँ अलग-अलग क्षणों की हैं इसलिए उनमें अगर उत्साह है तो घोर निराशा भी है, जैसा कि सामान्य आदमी के जीवन में होता है।
गरीबी और बेरोजगारी आज के समय की बड़ी समस्या है। एक तरफ धनाढ्य और सम्पन्न होते जा रहे है, दूसरी तरफ़ गरीब तबका अपने जीवन की बहुत जरूरी आवश्यकताओं के लिए निहार रहा है या गलियों, चौराहों एवं मंदिरों के समक्ष भीख के लिए कटोरा लिए खड़ा दिखाई पड़ता है। तब राकेश शरण मिश्र अपनी ‘भूख’ रचना में सवाल खड़ा करते हैं–
आज फिर एक आदमी भूख से मर गया,
भारत के संविधान से सवाल कर गया,
कब तक हम भूख से मरते रहेंगे,
कब हम अपने आप को इंसान कहेंगे।
राजनीति, सत्ता और उसके नेताओं के कार्य-व्यवहार व चरित्र से सभी भली-भाँति परिचित हैं। जिन नेताओं को चुनावी टिकट के लिए लाइन लगाना पड़ता है, लाखों रुपये पेशगी के रूप में देना पड़ता है, उनकी ऊपर कितनी सुनी जाती है या नहीं, वे आम आदमी के बीच बड़े-बड़े आश्वासन देकर लोगो को लुभाने का प्रयास करते हैं, ऐसे नेताओं पर मिश्र जी करारा तंज करते हैं–
खूब कमीशन खाेरी करते,
सीना ताने थे वो चलते,
बहुरूपिया का भेष बनाकर,
आम आदमी को थे छलते,
पाँच साल के लिए हमें फिर,
वो फाँसने आए हैं,
नीला पीला झंडा लेकर,
फिर नेता जी आए हैं।
मिश्र जी के मन में अपने देश और राष्ट्रीय ध्वज के प्रति अगाध श्रद्धा है। वह ‘तिरंगे के सम्मान में’ कविता में लिखते हैं–
आन बान और शान तिरंगा,
हम सबका अरमान तिरंगा,
कभी ना इसको झुकने देंगे,
भारत का सम्मान तिरंगा।
और आतंकी वारदातों पर अपनी कड़ी नाराजगी व्यक्त करते हुए वह पाकिस्तान को साफ-साफ चेतावनी देते हुए अपनी कविता ‘कायरता का एक नमूना फिर तुमने है पेश किया’ में लिखते हैं–
कब्रिस्तान बनेगा पेशावर,
नाचेगी मौत कराची में,
रावलपिंडी में मातम होगा,
फहरेगा तिरंगा लाहौर की छाती में।
वर्तमान समय में दुनिया भर में हो रहे युद्धों को लेकर उनके मन में अत्यधिक नाराजगी है। अपनी ‘युद्ध युद्ध बस युद्ध छिड़ा है’ रचना में इसे मानवता के विरुद्ध बताते हुए वह दिखते हैं–
मानवता दम तोड़ रही है,
नफरत के बम फोड़ रही है,
भाई भाई से आज लड़ा है,
युद्ध युद्ध बस युद्ध छिड़ा है।
लड़कियों की भ्रूण हत्या वर्तमान समय की एक ज्वलन्त समस्या रही है। लड़कों की चाह में लड़कियों की भ्रूण हत्या का एक सिलसिला चल निकला था। हालांकि इसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। श्री मिश्र जी अपने काव्य संग्रह में इस समस्या को उठाते हुए अपनी रचना ‘जब मुझे था मारना तो क्यों मुझे पैदा किया’ में लिखते हैं–
जब मुझे था मारना ,
तो क्यों मुझे पैदा किया,
खून अपना देकर मुझको,
खून क्यों मेरा किया।
वह अपनी कविताओं में महात्मा गाँधी को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करते हैं। बापू का क्षेत्र बहुत व्यापक है। वह सत्ता, राजनीति, देश, समाज, व्यक्ति के परिस्कार के लिए तो लगे हुए थे साथ ही देश की आजादी के लिए ब्रिटिस साम्राज्य से भी संघर्ष रत थे। वह भारतीय परम्परा के संत की भूमिका में थे और उसकी स्थापना के लिए कई तरह के प्रयोग कर रहे थे। आजादी उनका मुख्य लक्ष्य था पर उनके पास आजादी के बाद के सुनहरे भारत का सपना था। उन्हें देश का विभाजन स्वीकार नहीं था और वह हिन्दू-मुसलमान के बीच मारकाट के सख्त विरोधी थे। जो कुछ हुआ वह तत्कालीन स्थितियों के मद्देनजर हुआ। उनको उम्मीद थी कि पाकिस्तान बनने के बाद दोनों देश अच्छे पड़ोसी की भूमिका निभाएँगे। मगर दुर्भाग्य से कट्टरवादी पाकिस्तानियों के चलते ऐसा नहीं हो पाया। तो इसके लिए उनको कठघरे में खड़ा करना उपयुक्त नहीं। श्री मिश्र जी ने स्वयं गांधीजी की प्रशंसा भी की है। आज हमारे पास महात्मा गॉंधी जैसा बड़ा नाम है, जिनका पूरी दुनिया लोहा मानती है और श्रद्धा से सिर झुकाती है।
श्री राकेश शरण मिश्र ‘गुरु’ के इस काव्य संग्रह में कुल 63 रचनाएँ शामिल हैं जिनमें वह अपनी बातें बिस्तार से कहते हैं। उन रचनाओं को पढ़कर ही उन्हें अच्छी तरह से समझा जा सकता है। श्री राकेश शरण मिश्र जी को इस संग्रह के लिए बहुत सारी शुभकामनाएँ।
- भोलानाथ कुशवाहा
(वरिष्ठ साहित्यकार)
बाँकेलाल टंडन की गली,
वासलीगंज,
मिर्जापुर- 231001(उ.प्र.)
मो - 9335466414