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राजस्थान में विद्रोह का पर्याय बनेप्रजामंडल आंदोलनों में दलितों कीभूमिका सिर्फ समर्थन तक ही सीमित नहींरही, बल्कि उन्होंने संघर्ष और बलिदान केमाध्यम से आजादी की लड़ाई को सशक्तऔर प्रभावशाली बनाया।
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स्वाधीनता संग्राम में प्रत्येक वर्ग-समुदाय ने बिना कोई भेदकिए कुर्बानी दी थी। इनमें दलित भी शामिल थे। राजस्थानमें विद्रोह का पर्याय बनकर परवान चढ़े प्रजामंडलआंदोलनों में भी दलितों की भूमिका सिर्फ समर्थन तक हीसीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने संघर्ष और बलिदान केमाध्यम से आजादी की लड़ाई को सशक्त और प्रभावशालीबनाया। 1937 में जब जयपुर प्रजामण्डल की स्थापना हुईतो हरिशंकर सिद्धार्थ शास्त्री, रामचन्द्र बोहरा पटेल, नत्थूपटेल, भंवरीलाल पटेल, गोविन्द पुजारी, रेवाराम औरनारायण झण्डेवाला जैसे दलित आंदोलनकारियों ने इनमेंजान फूंक दी। इनके अलावा शिवप्रसाद मरमट, कोलियोंकी कोठी के मेवाराम और मांगीलाल, मेहतर बस्ती केकालूराम प्रधान, मास्टर रामनारायण, मास्टर मोतीलाल,रेगरों की कोठी के रघुनाथ जलुथरिया, धन्ना कराड़िया औररामचन्द्र ने भी आजादी की लड़ाई में आंदोलनकारियों कासाथ दिया। कुछ जेल भी गए और यातनाएं सहीं।इसी तरह मेवाड़ में चित्तौड़गढ़ के चूटीसदरी केअमृतलाल यादव स्कूल छोड़ कर प्रजामण्डल के सदस्यबन गए। गिरफ्तार हुए और महीनों कारावास की सजाभुगती। छोटी सादड़ी, चित्तौड़गढ़ राज्य के ही जयचंदमोहिल आंदोलन के दौरान जेल गए।
अजमेर राज्य मेंदलित वर्ग से आने वाले ब्यावर निवासी कंवरलालजेलिया, हजारीलाल पंवार और परसराम बाकोलिया भीआजादी की लड़ाई के लिए अपनी जान हथेली पर लिएरहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने “चमार रेजिमेंट’का गठन किया था, जिसने बर्मा में जापान के खिलाफ युद्धलड़ा। अलवर के बसेठ गांव के गुलाबचन्द जाटव भी उसरेजिमेंट में शामिल थे, जो बाद में अलवर प्रजामण्डल मेंशामिल हुए और शोभाराम, हरिनारायण शर्मा आदिक्रांतिकारियों के साथ आजादी की लड़ाई लड़ी। उनके साथत्रिलोक जाटव और सम्पतराम भी शामिल रहे थे।जोधपुर के नरसींग देव गुजराती (एनडी गुजराती) ऐसेविरले दलित क्रांतिकारी थे, जो चौदह वर्ष की कम उम्र मेंही “इंडियन नेशनल कांग्रेस’ की वानर सेना में भर्ती हो गए।राजविरोधी गतिविधियों के कारण उनको घर-परिवार सेअलग कर दिया गया। गांधीजी के आह्वान पर “भारत छोड़ोआंदोलन’ पूरे मारवाड़ में उग्र हो उठा। तब नरसींग देव नेआंदोलनकारियों को विभिन्न मेहतर बस्तियों में भूमिगतकरवाया। उनके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था की।
यही नहीं, वे भेष बदलकर जोधपुर, पाली-मारवाड़ केभूमिगत आंदोलनकारियों के लिए पत्रों के अदान-प्रदानजैसा जोखिम भरा कार्य भी करते थे।इनके अलावा भूरालाल भगत आलोरिया, रामचन्द्र भूरापटेल, भंवरीलाल पटेल, गोविन्द पुजारी, रेवाराम,शंकरलाल, नारायण झण्डेवाला, हरलालसिंह बलाई,जीवनसिंह धानका (जयपुर), सूर्यमल मौर्य, नारायणदासमौर्य, बोदुलाल, उन्दरीलाल (ब्यावर), चांदमल मौर्य,बीजराज उजैपुरिया (अजमेर), चेतनजी कबाड़ी(बाड़मेर), मानूराम बढारिया (उदयपुर) आदि दलितजातियों के लगभग 60 आंदोलनकारी हैं, जिन्होंने आजादीकी लड़ाई में योगदान दिया। लेकिन अफसोस है किसामान्य जातियों के आंदोलनकारियों के नाम परविश्वविद्यालय, विद्यालय, बांध, सड़क, पथ,गली-मोहल्ले, विभिन्न सरकारी योजनाएं और कार्यक्रम रखेगए। लेकिन दलित स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी के बादभुला दिया गया। कुछेक को छोड़, उस गली के नुक्कड़ परभी उनके नाम की पट्टिका नहीं लगी, जहां वे जन्मे औरआखिरी सांस ली।स्वतंत्रता संग्राम में राजस्थान से शहीद हुए 17आंदोलनकारियों में से इकलौते दलित क्रांतिकारी बीरबलसिंह जीनगर का ही उदाहरण लिया जा सकता है।
श्रीगंगानगर में उनके नाम पर “बीरबल चौक’ है। लेकिननगर परिषद ने चौक के सौंदर्यीकरण के लिए तो बजटआवंटित कर दिया, किंतु शहीद की प्रतिमा के लिए बजटदेते समय हाथ खींच लिए। विडंबना है कि देश के लिएप्राण न्योछावर करने वाले सेनानी की प्रतिमा परिजनों कोअपने खर्च पर स्थापित करवानी पड़ी ।(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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