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क्या आप जानते हैं कुल्फी का जायका 16वीं शताब्दी में ईरान या पारस से भारत पहुंचा था। शुरुआत में कुल्फी केवल शाही महलों में डेजर्ट के तौर पर खाई जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे यह जायका आम लोगों तक पहुंचा। उस जमाने में कई फ्लेवर तैयार किए गए। जिनका स्वाद लोगो
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आज बाजार में भले ही अलग-अलग वैरायटी की आइसक्रीम मिलती हो, लेकिन ट्रेडिशनल अंदाज में तैयार होने वाली मटका कुल्फी का क्रेज आज भी उतना है, जितना बरसों पहले हुआ करता था। उस स्वाद को चखने के लिए लोग दूर-दूर से पहुंच जाते हैं। ऐसा ही एक 100 साल पुराना जायका है पन्नालाल कुल्फी वाले का। वर्ल्ड हेरिटेज में शुमार जयपुर सिटी की तंग गलियों के इस जायके से आपको भी रूबरू करवाते हैं…
पन्नालाल की प्रसिद्ध रबड़ी कुल्फी का जायका लेने लोग दूर-दूर से पहुंचते हैं।
100 साल पुराना जायका, 1923 में शुरुआत
सर्दी हो या गर्मी गोपाल जी का रास्ता स्थित पन्नालाल कुल्फी वाले की शॉप पर देसी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ नहीं टूटती। इस शॉप की शुरुआत आजादी से भी पहले सन 1923 में पन्नालाल टाक ने की थी। उन्ही के नाम आज यह कुल्फी ब्रांड बन चुकी है।
महेंद्र टाक ने बताया कि उनके दादा मांगीलाल जोधपुर में सबकुछ छोड़कर से जयपुर आए थे। जोधपुर में उनका सब्जी का कारोबार था। लेकिन उन्हें अपने पार्टनर से धोखा मिला। दादा मांगी लाल ने हिम्मत नहीं हारी। जयपुर आ तो गए लेकिन परिवार चलाने के लिए न तो नौकरी थी और न कोई बिजनेस।
पन्ना लाल के पिता मांगी लाल जिन्होंने कुल्फी बेचना शुरू किया था।
लेकिन उनके पास हाथ का हुनर था, कुल्फी बनाने का। उन्होंने घर पर ही कुल्फी बनाने का काम शुरू किया। तब शहर में इतनी भीड़ नहीं होती थी और न ही कुल्फी की ज्यादा खपत। साइकिल पर वो रोजाना कुल्फी बेचने निकला करते थे। कभी गोपाल जी के रास्ते तो कभी त्रिपोलिया बाजार के पास। करीब 7 साल उन्होंने साइकिल पर मटका कुल्फी बेच कर अपना घर परिवार चलाया।
अचानक उनकी मृत्यु हो गई। तब पिता पन्नालाल की उम्र महज 13 साल की थी। घर चलाने के लिए और कोई रोजगार नहीं था। तब पिता पन्नालाल ने कुल्फी बनाने के काम को अपने हाथ में लिया। कुछ साल तक दादा की तरह साइकिल पर कुल्फी बेची।
मिल्क रोज और बादाम मिल्क ताजा दूध से तैयार किया जाता है।
पिता हमेशा खाने पीने की चीजों में एक्सपेरिमेंट करते रहते थे। उन्होंने कुल्फी और रबड़ी से कई बेहतरीन स्वाद तैयार किए। घूम-घूमकर जायका बेचा, जो धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा। बाद में जोरावर सिंह गेट पर एक छोटी सी दुकान किराये पर ली। आज उसी दुकान का यह जायका 100 साल पुराना ब्रांड बन चुका है। महेंद्र टाक बताते हैं मैंने 18 साल की उम्र में पिता के साथ दुकान मिलकर दुकान संभाली, अब मेरा छोटा बेटा रोहित इसी काम को आगे बढ़ा रहा है।
शाही रबड़ी और बादशाही रबड़ी की काफी डिमांड रहती है।
छोटी सी दुकान में 12 वैरायटी, शाही और बादशाही रबड़ी खास
पन्नालाल कुल्फी वाले की एक छोटी 9 बाई 5 की दुकान में कुल्फी, रबड़ी और फ्लेवर्ड मिल्क की कई वैराइटी मिलती है। जिनमें सादा कुल्फी मटका कुल्फी, शाही रबड़ी, बादशाही रबड़ी, रबड़ी गिलास, लच्छेदार रबड़ी, रबड़ी मिल्क, केसर रबड़ी, केसर मिल्क, का जायका लेने लोग दूर-दूर से आते हैं।
ये है बादशाही रबड़ी, जिसमें केसर पिस्ता कुल्फी, बादाम मिल्क और रबड़ी डाली जाती है।
रबड़ी कुल्फी के साथ-साथ यहां की शाही और बादशाही रबड़ी काफी फेमस है। यह नाम जयपुर का जुड़ाव राजघरानों से होने के कारण रॉयल टच देने के लिए रखा गया था।
बादशाही एक बड़े गिलास में सर्व करते हैं और इसमें बड़ी साइज की मटका कुल्फी, लच्छेदार रबड़ी और बादाम मिल्क मिलाते हैं। शाही रबड़ी छोटे गिलास में सर्व होती है। कांच के गिलास में लच्छेदार रबड़ी, ऊपर से कुल्फी के को काटकर डालते हैं।
आगे बढ़ने से पहले देते चलिए आसान से सवाल का जवाब
बच्चन-ढिल्लों जैसे सेलिब्रिटी भी रबड़ी कुल्फी के दीवाने
महेंद्र टाक कहते है कि कुल्फी रबड़ी के चर्चे दूर-दूर तक रहे हैं। 30-35 साल पहले राजश्री प्रोडक्शन और फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर राज बंसल का ऑफिस इधर ही हुआ करता था। उस वक्त बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन, सुरेश ओबरॉय और पूनम ढिल्लों जैसे कलाकारों का दफ्तर में आना जाना रहता था।
तब बड़े से बड़ा कलाकार भी पन्नालाल की दुकान पर बैठकर कुल्फी का जायका लेते थे। बाद में ऑफिस दूसरी जगह शिफ्ट हो गया। लेकिन आज भी जब वहां से ऑर्डर आता है। यहां से कुल्फी और रबड़ी पैक होकर जाती है।
विदेशी सैलानी पन्ना लाल कुल्फी वाले की शॉप पर कुल्फी का स्वाद लेते हुए।
चूल्हे की राख से मांजते हैं बर्तन, 60 साल से एक ही जगह से आ रहा दूध
महेंद्र टाक ने बताया कि कुल्फी की बेसिक सामग्री है लच्छेदार रबड़ी। रबड़ी बनाने के लिए दूध 50-60 साल से राजावास के पास एक गांव से ही आ रहा है। हमारा सालों से वहां के पशुपालकों पर भरोसा बना हुआ है। फिर भी दूध की शुद्धता की जांच करने के बाद ही इस्तेमाल करते हैं।
रबड़ी बनाने से पहले दूध के जितने भी बर्तन हैं उसे कास्टिक की बजाय चूल्हे की राख से मांजते हैं। इससे रबड़ी की शुद्धता बनी रहती है। रबड़ी बनाने में किसी तरह के केमिकल या फूड कलर का इस्तेमाल नहीं होता। इसके पीछे वजह यह भी है कि व्रत रखने वालों को भी एकदम शुद्ध जायका मिल जाता है।
ये है शाही रबड़ी, जिसे कांच के छोटे गिलास में केसर पिस्ता कुल्फी डालकर तैयार करते हैं।
पहले फ्रीज नहीं होते थे। तब रबड़ी को सांचे में डालकर पेटी में नमक और बर्फ डाल दी जाती थी। नमक और बर्फ मिलकर फ्रीजिंग पॉइंट पर कुल्फी जमाते थे। अब फ्रीजर का इस्तेमाल किया जा रहा है।
100 किलो दूध की खपत
पन्ना लाल कुल्फी वाले के ऑनर महेंद्र टाक बताते हैं कि कुल्फी और रबड़ी का जायका लोगों को इतना पसंद आता है की सीजन में डेली करीब 100 किलो दूध से बनी कुल्फी की खपत हो जाती है। आम दिनों में रोजाना 70 किलो दूध से कुल्फी और रबड़ी तैयार की जाती है।
महेंद्र कुंवर टाक और उनका छोटा बेटा रोहित।
पिता की सीख- ग्राहक ही भगवान और ग्राहक ही बेटा
महेंद्र टाक ने बताया पिता ने मुझे अनुशासन में रहते हुए काम करना सिखाया है। उन्होंने एक बार कहा था- महेंद्र देखो…ग्राहक ही बेटा है और ग्राहक ही भगवान है। बेटे को जैसे अच्छा खिलाते हो वैसे ही ग्राहक को तरोताजा और शुद्ध खिलाना। बेटे को भले ही कुल्फी खाने को मत देना लेकिन दुकान पर जो भी ग्राहक आए उसे प्यार और सम्मान के साथ खिलाना। ग्राहक तुम्हारे स्वाद और बर्ताव को हमेशा याद रखेगा। आज उसी सीख को अगली पीढ़ी भी फॉलो कर रही है।
फोटो कैप्शन : पन्ना लाल कुल्फी वाले महेंद्र टाक विदेशियों को कुल्फी खिलाते हुए
पिछले राजस्थानी जायका में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर
ये हैं जोधपुर के चुरमुर कबाब। कबाब का नाम सुनते ही किसी नॉनवेज आइटम की तस्वीर सामने घूम जाती है। घबराइए नहीं… हर कबाब नॉनवेज नहीं होता। करीब 1000 साल पुराने इस व्यंजन की उत्पत्ति फारसी साम्राज्य में हुई थी। तुर्की (अब तुर्किए) के जरिए कबाब भारत पहुंचा।
लोगों ने अपने-अपने हिसाब से इस लजीज व्यंजन को बनाना शुरू किया और वही फेमस होता चला गया। इसी एक्सपेरिमेंट के नतीजे से बना है जोधपुर का मानसून स्पेशल ‘चुरमुर कबाब’।तीन दोस्तों ने मिलकर इस कबाब की शुरुआत की…(पूरी स्टोरी पढ़िए)
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